बभनी | प्रमोद कुमार तिवारी
बभनी | प्रमोद कुमार तिवारी

बभनी | प्रमोद कुमार तिवारी

बभनी | प्रमोद कुमार तिवारी

लाल, पतली, छरहरी सी काया भाग रही होती
कमरे से रसोई, रसोई से आँगन
और आँगन से दालान
अपनी कानी उँगली उठाए
हम लखेद रहे होते उसे
उसकी पूँछ छूने के लिए
कि पूँछ छूने पर मिलता है पैसा
नहीं मालूम
बभनी का बाभन से है भी या नहीं
कोई रिश्ता
पर बभनी की वह पूँछ भारी पड़ती
वैतरणी पार लगानेवाली गाय की पूँछ पर
बभनी की तरह ही
अक्सर मुठभेड़ होती
बिल्लियों, चूहों, चिटियों, छिपकलियों से
मौसी से तो मानो होड़ लगती
कि देखें बेहुड़ी की दूध पर
कौन करता है
पहले हाथ साफ।
गणपति वाहन को खिलौना गाड़ी में जोत
हम भी कभी-कभी ढुलवा लेते अपने कंचे।
बड़े निर्विकार भाव से दर्शन देते जब-तब
बिच्छु और साँप
हम छप्पर में ढूँढ़ रहे होते अपना छुपाया सामान
कि अवतरित हो जाते ‘करैत’ महाराज
और उस किसान की भला कैसी बरकत
जिसे न दिखे ‘धामिन’
मच्छर और मक्खी तो जैसे चिर पुरातन साथी थे अपने।
कभी-कभी अचानक उपटते थे माटा
जब धरती हो जाती
पूरी की पूरी लाल
अनंत लंबी कतारों में आकर
कब्जा जमा लेते वे फर्श और दीवारों पर
तब किसी ‘हिट’ या ‘इन्सेक्ट कीलर’ से हमले की बजाय
पानी और आटे की भोग लगाती थीं माँ
और कुछ घंटों बाद वैसे ही अचानक
गायब हो जाते वे जाने किस खोह में
वह घर था
घर
जिसमें
सभी सदस्यों के लिए होती थी पर्याप्त जगह
कुत्ते, बकरी, बिस्तुइया से लेकर
आन गाँव से आनेवाले
सारंगी बजाते बाबा तक के लिए
जिनका भय और आश्चर्य के साथ
हम करते पीछा
जो ले जाते आटा, चावल और फटे-पुराने कपड़े
सारंगी की मधुर धुनों पर लादकर।
घनघोर गरीबी के दिन थे वे
जब पाँव में चप्पल या देह पर साबुत कुर्ते का होना
रिश्तेदारी में जाने की होती थी निशानी।
गरीबी थी
अभाव न था
भावों से लबालब भरा रहता पूरा घर
जहाँ पूँछ छोड़ भागती छिपकली
और गर्म चिमटे की मार खाती बिल्ली
हमेशा रहती तैयार
अगले दिन आने के लिए।
छोटे-से भरे-पूरे घर के
सदस्य थे ये सब
उतने ही जरूरी
जितनी दादाजी या नीम की छाँह
उतने ही जरूरी
जितना आम का टिकोरा
या पड़ोस की भउजी की सब्जी भरी कटोरी
घर
जो एक कुत्ते के बीमार होने से
मुरझा जाता था
जिसमें गाय के न खाने पर
दादी को फीकी लगती थी सब्जी।
जाने कैसे
अपने ही परिवार के सदस्य
बनते चले गए
दुश्मन
सुविधाओं के बावजूद अब अपना घर
लगता है
कितना छोटा
कितना सूना।

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