आत्मजा | रोहिणी अग्रवाल
आत्मजा | रोहिणी अग्रवाल

आत्मजा | रोहिणी अग्रवाल – Atmaja

आत्मजा | रोहिणी अग्रवाल

कहानी कुछ साफ नहीं है दिमाग में। लगता है नैन-नक्श भी पूरे नहीं लिए उसने। लेकिन मिसेज अलका नंदा पता नहीं कैसे पूरी कद-काठी ले कर बाहर आने को बेचैन हैं। मैं बार-बार बरज रही हूँ – नहीं, प्रीमेच्योर डिलीवरी में रिस्क रहता है। माँ और बच्चा दोनों के लिए। लेकिन मिसेज अलका नंदा शायद कुछ ज्यादा ही जिद्दी स्वभाव की हैं। अपने जमाने की जानी-मानी एक्टिविस्ट। एक बार ठान लिया सो बस्स! पूरा घर थर्राता है उनसे। अनुशासन और आदर्श की ऐसी कसी-फँसी डोर… मि. अलका नंदा (अलका को लगता है जब पत्नियों को मिसेज अलाँ-मिसेज फलाँ कह कर बुलाया जाता है तो क्यों नहीं पत्नियों की सहेलियाँ उनके पति को मि. अलाँ-मि. फलाँ कह कर संबोधित करतीं? समानता का जमाना है यार!) कसमसा कर रह जाते हैं। वे तो बल्कि शादी के इन तीस सालों में फिंगर्स क्रास किए बैठे हैं, क्या पता कब अपनी सनक के चलते मिसेज अलका नंदा चाय के प्याले में तूफान खड़ा कर दें। वे क्या भूल सकते हैं शादी के तुरंत बाद की वह घटना जब अकेलेपन की शिकायत ले कर वे नौकरी के लिए हठ करने लगी थीं। मि. नंदा का इतना नामी-गरामी खानदान… कई-कई शहरों में फैला व्यापार… प्राइवेट स्कूल-कॉलेजों की पुश्तैनी चेयरमैनशिप… जिस खानदान की बहू ने कभी कार से नीचे पैर न धरा हो, वह दोटकिया नौकरी के लिए सड़कों की धूल फाँकेगी? पीड़ा से उनका चेहरा पीला पड़ गया था। खानदान की इज्जत की दुहाई भी दी। लेकिन मिसेज अलका नंदा थीं कि वहीं अड़ गईं – पैसा नहीं, आजादी नहीं, सिर्फ आत्मसार्थकता की तलाश। ‘दोटकिया’ नौकरी से ठेस लगती हो तो ऑनरेरी सही। क्या करते मि. नंदा। जिस हाई स्कूल के चेयरमैन थे, वहीं अतिरिक्त पोस्ट निकाल कर उन्हें खपा दिया गया। पढ़ाने को कुछ था नहीं, सो एकस्ट्रा करीकुलर एक्टिविटीज के नाम पर निरर्थक व्यस्तता उनके मत्थे मढ़ दी गई। सब कुछ ठीक चल रहा था। लेकिन एक दिन… जाने तो कौन सा दिन था वह… हाँ, स्काउट्स डे… राबर्ट पॉवेल को श्रद्धांजलि देने के उत्साह में मिसेज अलका नंदा ने स्कूल के सारे स्काउट्स को इकट्ठा कर लिया – ‘आओ बच्चो, शहर की तमाम खस्ताहाल सड़कों के गड्डे भरें!’ चिकनी मिट्टी और मलबे का इंतजाम करके उन्होंने चार-चार बच्चों की टोली को एक-एक तसला और फावड़ा दे दिया – ‘मार्च!’

‘हम?’ रईस खानदानों और नकचढ़े अफसरों के बिगड़े शहजादे बिफर गए। उन्हें विश्वास नहीं हो पा रहा था कि जो काम नौकर-मजदूरों का है, वही वे करें।

‘चलो, कम ऑन!’ मिसेज अलका नंदा ने तसला भर मिट्टी उठा कर स्कूल के ऐन सामने सड़क के गड्ढे में भर दी। फावड़े से समतल करती हुईं वे जैसे चहुँ ओर उपस्थित हो गईं – ‘हरी अप!’

आँखों को जूतों पर गड़ा कर लाचार शहजादों ने अभी एक सड़क भी नहीं निबटाई थी कि सारे शहर में अफरा-तफरी मच गई। दफ्तरों से अफसर और गद्दियों से सेठ निकल कर स्कूल में इकट्ठे हो गए। इतना बड़ा अपमान! बच्चों को हमने अफसर बनाने स्कूल भेजा है या मजदूरी करने? मि. नंदा फौरन तलब किए गए। लेकिन मिसेज अलका नंदा को ड्यूटी के समय न नाते-रिश्ते याद रहते हैं, न रसूख ओहदे। बच्चे अपने-अपने बाप की गाड़ी में फुर्र से उड़ गए तो भी वे मायूस नहीं हुईं – ‘ठीक है, मैं अकेली ही स्काउट्स डे मनाऊँगी’ और स्कूल के चपरासी-माली-ड्राइवर-गेटमैन के साथ वे शाम तक सड़कों की मुरम्मत करती रहीं। एवज में मि. नंदा को पुश्तैनी चेयरमैनशिप से हाथ धोना पड़ा। कलंक लगा सो अलग कि जो अपनी जोरू की नाक में नकेल नहीं डाल सकता, वह संस्था क्या खाक चलाएगा?

‘सब ग्रह-नक्षत्रों का खेल है!’ मि. नंदा खोटे ग्रहों के जप-दान की मंशा से ज्योतिषी के पास क्या पहुँचे कि रही-सही आस भी गँवा आए।

‘हरि ओमऽ हरि ओमऽऽ… ग्रहदशा मिल कर रूचक योग बना रही है। जातक जिद्दी, अभिमानी और शत्रुनाशी होगा। सेनापति जैसे गुण… चंद्रमा से नौवें भाव में बुध हो तो… राम राम राम… ऐसा जातक धर्मविरोधी और भयानक कर्म करनेवाला होता है। सावधान!’

तब से मि. नंदा के हौसले एकदम तली में जा लगे हैं और मिसेज अलका नंदा अपने को पाने और समाज से जुड़ने की फिराक में निरंतर अपना विस्तार और उठान करती रही हैं। ‘भयानक कर्म!’ नींद में भी चिंहुक उठते हैं मि. नंदा। लेकिन मिसेज अलका नंदा से दिल के दर्द बाँटने की जुर्रत नहीं कर सकते। नामर्द तो वे उस दिन से उनकी नजरों में हो ही गए हैं। अब आगे और पता नहीं…। अनागत की आशंका में भीगी बिल्ली बन कर एक कोने में चुप बैठे हैं, बस।

बाप रे! तो ऐसी हैं मेरी कहानी की मिसेज अलका नंदा। अपने गर्ल्ज हाई स्कूल की बूढ़ी कड़क चिरकुँआरी प्रिंसिपल मिस कमला दत्ता याद आ गईं मुझे। हम उन्हें बच्चे भून कर खानेवाली शैतान जादूगरनी कहा करते थे। अपनी ही कलम से निकली मिसेज अलका नंदा को कैसे काबू कर पाऊँगी मैं?

ॐ त्रयम्बकम् यजामहे सुगंधिम् पुष्टि वर्धनान, उर्वारिक…

मैंने कनखियों से ताका उन्हें। यह क्या? वे तो सिर झुकाए परेशान हाल बैठी हैं। चेहरे पर न वह बरसता नूर, न कड़ापन। बेतरह नर्वस! बीच-बीच में चौंक कर आत्मसजग होती हैं तो अपने आप को फटकार लेती हैं – ‘अरे! कोई अनहोनी तो होने नहीं जा रही। हर औरत वक्त आने पर चाहे-अनचाहे माँ बनती ही है। वही हास्पिटल, दवाइयाँ, डिटॉल, उबकाई भरी दमघोंटू गंध, नर्सें-डॉक्टर, बकबके खाने, उल्टियाँ, कराहें, सन्नाटे… बच्चे को दुनिया में लाने के लिए इन सारे पायदानों से गुजरना ही पड़ता है।

‘मैडम, घबराइए नहीं। नार्मल केस है। बच्चा ठीक होगा।’ मनीषा को लेबर रूम में शिफ्ट करते हुए सिस्टर ने तरस खा कर उन्हें तसल्ली बँधानी चाही। पर झूठी तसल्लियों से दिल बहला लेनेवाली दादी-नानी-सी औरत नहीं वे। जानती हैं कुल सात (चलो खींच-खाँच कर साढे सात-पौने आठ महीने कह लो) महीने ही तो हुए हैं उदय का ब्याह हुए। और अब डिलीवरी… बच्चा नार्मल कैसे हो सकता है?

इन्क्यूबेटर!

घबराई सी वे मैटर्निटी वार्ड के आई.सी.यू. और इन्क्यूबेटर का जायजा भी ले आईं। पता नहीं किन गंड-मूलों में कन्सीव हुआ होगा बच्चा?

गर्भ भार से झुकी मनीषा की कातर देह उन्हें देर तक बींधती रही। दर्द की जानलेवा हिलोर कितनी शांति से सह रही है। न नौटंकी, न चीख-पुकार। जैसे लहरों के हवाले कर दिया हो खुद को। आओ और पीट-पछाड़ कर लौट जाओ। कैसी बेबसी! आँखें तक बिंधी रहती हैं बेबसी से। ‘मृगनयनी!’ बेसाख्ता निकल गया था उनके मुँह से, पहली बार जब देखा। नीरू के बेटे की शादी में मिलीं थीं उससे। पता नहीं क्या रिश्ता बताया था – ससुराल की तरफ से किन्हीं चचेरी ननद की अलाँ-फलाँ की बेटी है। खासतौर पर शादी में बुलवाया गया है क्योंकि यहाँ लड़की दिखाने और रिश्ते तय करने में बड़ा सुभीता रहता है दोनों पार्टियों को। उन्होंने तुरंत कोहनी मार कर उदय को ध्यान से उस लड़की को देख लेने की ताकीद की।

‘ओ.के.! सो सो!’ उदय को कोई दिलचस्पी नहीं हुई लड़की में।

‘सो सो? मृगनयनी! ध्यान से देख।’

‘माय गॉड! मॉम प्लीज!’ वह हँसता-हँसता खाने की मेज की ओर बढ़ गया।

‘मृगनयनी? आँखें देखीं उसकी? बेचारी हिरनी गश खा कर गिर जाएगी…’

‘…या तुम्हारी तरह हुई तो मानहानि का मुकदमा ठोक देगी।’ मि. अलका नंदा ने छौंक लगाया।

वे अड़ी रहीं। ‘तुम मर्द लोग! सब के सब सामंती! औरत को फिजिकल रेफरेंस के परे समझ ही नहीं सकते।’ वे आगबबूला।

आँखों ही आँखों में ढेर-सी बातें करके बाप बेटा खामोश हो गए।

‘आँखों में बेबसी और कातरता की परतें देखीं? मानो बंदूक ले कर शिकारी यकायक सामने आ गया हो। मानो…’ हठात् वे चुप हो गईं। क्या फायदा तर्क करने का? जब वे खुद अपनी मर्जी के खिलाफ कुछ नहीं करतीं तो दूसरों से क्यों अपेक्षा करें?

कहने को जो भी कहता रहा हो उदय, मनीषा को रिजेक्ट वह भी नहीं कर पाया। एक एक्सक्लूसिव मीटिंग के बाद कान्फीडेंट हाँ भर दी – ‘ओ.के.! एज यू विश।’ वे मन ही मन हँस दीं। एज यू विश का बच्चा! इतना ही राजा-मुन्ना होता तो शादी की रस्मों को ले कर खुलेआम बगावत करता? मि. अलका को तो खैर मतलब ही नहीं। उदय बिदक गया – ‘न बाजा-गाजा, न गीत-ठिठोली। कुल ग्यारह आदमियों के साथ दिन की चटकती धूप में ये गए और वो दुल्हन का डोला ले आए मानो जरा भी देर हुई तो संयोगिता हरणवाला नजारा…।’

‘तो?’ उनकी भौंहों में अतिपरिचित शैली में बल पड़ गए। मि. नंदा टी.वी. पर डिस्कवरी चैनल देखने में अति व्यस्त हो गए।

‘शादी के नाम पर ऐसा रूखा-सूखा बेगानापन पसंद नहीं मुझे।’ उदय दबा-दबा कर गुस्सा परोसने लगा।

‘मतलब?’

‘हँ हँ’ वह खामख्वाह खींच-खींच कर उँगलियाँ चटकाता रहा।

‘कोर्ट मैरिज ठीक रहेगी?’

‘मैरिज की ही क्या जरूरत है ममा?’ बहुत लंबे अंतराल के बाद एक-एक लफ्ज ठंडे लोहे की तरह ठेल कर मुँह से निकाला उसने और लगभग फलाँगते हुए कमरे से बाहर निकल गया।

‘बेचारी आनेवाली लड़की! ओनली गॉड कैन सेव हर!’ मिसेज अलका नंदा को लगा दौड़ते कदमों से कुचल कर कुछ शब्द रेंगते-कराहते उन तक पहुँच ही गए हैं। लेकिन तब तक मि. नंदा ने ‘स्टार प्लस’ का वॉल्यूम कुछ ज्यादा ही तेज कर दिया था। घर-घर की कहानी।

दुराव-छिपाव से सख्त चिढ़ है मिसेज अलका नंदा को। और उदय है कि ऐन-मेन मि. नंदा की तरह… चलो छोड़ो! इन पचड़ों को क्या खोलना। वो तो उन्हें ही लगा कि बात में भँवर पेंच है जरूर। ‘मनीषा पसंद नहीं तो रिश्ता तोड़ आती हूँ। नैतिक जिम्मेदारी मेरी होगी।’ उन्होंने सुझाव रखा।

‘हद है भई! इसमें रिश्ता तोड़ने की बात कहाँ से आ गई?’ उदय बौखला गया, ‘मैं तो बस यही कह रहा था, शादी शादी की तरह क्यों न की जाए? बार-बार तो होती नहीं।’

‘लड़कों के भी अपने चाव-अरमान होते हैं। मि. नंदा ने टी.वी. ऑफ कर दिया।

मिसेज नंदा अपने पाले में अकेली!

खैर!

सबके सारे चाव-अरमान पूरे हुए। भात आया। वरी बनाई गई। ज्वैलर के यहाँ दसियों चक्कर लगा कर खुद उदय ने अपनी पसंद के भारी सैट बनवाए। बन्ना… उबटन… घुड़चढ़ी… लेडीज संगीत… जगराता… दूल्हे की रेशमी अचकन – राजस्थानी पगड़ी… लाइटें… पार्टी… रिसेप्शन…। जब सब कुछ पारंपरिक ढंग से होना ही है तो कुछ भी अनकिया क्यों छोड़ा जाए? वे भी जेवरों से लकदक भारी रेशमी साड़ी में बहू की अगवानी में आरती का थाल ले कर द्वार पर खड़ी हो गईं। द्वार-पूजा के बाद बहू को अंदर लिवा कर गठजोड़े की गाँठ खोली।

‘अपने बहाव के विरुद्ध भी बहुत तेज बह सकता है आदमी!’ वे बराबर अचरज करती रहीं।

‘ममी!’ रिंपी मेरे बिल्कुल बगल में आ कर खड़ी हो गई।

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‘शि शि! देखती नहीं, ममी कहानी लिख रही हैं।’ सात बरस के फासले ने स्वीटी को सयाना बना दिया है।

‘ममी!’ रिंपी फिर जहाँ की तहाँ।

‘हाँ।’ मैं बदस्तूर लिखती रही।

‘कहानी लिख रही हो?’ वह उचक कर पढ़ने लगी। ‘अपने बहा…व के व… वी… रू… ये क्या लिखा है ममी?’

मैं खिझला गई। ‘जाओ बेटे। डिस्टर्ब नहीं करो।’

‘लेकिन मुझे भूख लगी है न।’ वह नदीदों की तरह भूख का प्रदर्शन करने लगी।

‘स्वीटी, देख, डिब्बे में मैगी का पैकेट पड़ा होगा। बना कर खिला दे इसे।’

‘मैं भी खाऊँगा।’ ईशु ठुनका।

‘मैगी? और इस वक्त? घड़ी देखी है? कायदे से तो अब तक खाना खिला कर सुला दिया जाना चाहिए था बच्चों को।’

नौ!

लो! हो गई छुट्टी। मैंने कागज समेटने शुरू कर दिए।

‘पापा, ममी कहानी लिख रही हैं।’ स्वीटी मेरी तरफदारी करने लगी है इन दिनों।

‘तो?’ रिंपी के साथ-साथ उसके पापा मेरी बगल में आ कर खड़े हो गए। ‘कहानी लिखना और किटी पार्टियों में तंबोला खेलना मेरी नजर में बिल्कुल एक से काम हैं। वक्तकटी के औजार!’

‘ओ.के. भई। उठ तो रही हूँ।’ मैं लगभग दौड़ते-दौड़ते किचन में पहुँच गई। बडे-बड़े घूँट ले कर कुछ निगलती रही देर तक। अपमान! अपराधबोध! आक्रोश! बेबसी!

‘बाय मिसेज अलका नंदा।’ जो साफ-साफ सुनाई दिए, बस यही चार शब्द थे।

‘हलो!’ अवकाश मिलते ही लपक कर मैं अपनी मेज पर आ बैठी। लपट-झपट कर कागज फैला लिए सामने।

‘हलो मिसेज अलका नंदा।’ मैंने दोस्ती का हाथ बढ़ाया।

गहरी चुप्पी! नो रिस्पांस! मैंने कंधे उचका दिए। पैन खोल कर बिटर-बिटर कागज को ताकने लगी। पैन के कवर को दाँतों तले चीथते हुए। आदतन! पंद्रह मार्च! लिखित कागज के आखिरी हिस्से पर तारीख चमक रही थी। आज बीस! पाँच दिन बीत गए। ‘हलो!’ मैंने फिर पुकारा। देर तक जवाब की अधीर प्रतीक्षा। निष्फल। हाय! भीड़, व्यस्तता और वक्त का रेला मिसेज अलका नंदा को छीन ले गया मुझसे। बेशक बच्चा प्रीमेच्योर हो, होता तो अपना है। अपना ही अंश। अपना ही विस्तार। मिसेज अलका नंदा क्या जानें पिछले पाँच दिन अपने से चिपटाए मैं उन्हें कहाँ-कहाँ नहीं ले गई – भीतर-बाहर, नींद और अनींद में। क्या-क्या नहीं सोचा था कि परेशानी का सबब जान कर यूँ-यूँ दिलासा दूँगी, यूँ यूँ राह सुझाऊँगी…

‘ओ हाय शालिनी! तू?’ एक आत्मीय आवाज और अधिकारपूर्ण भरपूर हाथ मेरे कंधे पर पड़ा तो मैं चौंक कर मुड़ गई। चेहरा बिल्कुल सपाट। आँखों में दूर-दूर तक अपरिचय का बियाबान रेगिस्तान। उमग कर मिलनेवाली तपते रेगिस्तान में घिर कर तड़प उठी। ‘आय’म सॉरी। मैंने सोचा…’

‘कोई बात नहीं।’

‘आप… ?’ वह फिर भी आस और अविश्वास से मुझे तकती रही।

‘मैं… मिसेज अलका नंदा।’ बहुत ही आत्मविश्वास से मैंने जवाब दिया।

डिपार्टमेंटल स्टोर में परेशान अलका नंदा के साथ मैं देर तक चक्कर लगाती रही।

‘ममी!’ ईशु ने अधीर हो कर मेरी साड़ी का पल्लू खींच डाला। ‘मैं कोक पीऊँगा।’

‘हँ?’ मैं अपने में आई। ‘हाँ।’ और अतिरिक्त उत्साह से कोक के साथ चिप्स भी खरीदवा दिए। अपराधबोध एक खास तरह की सक्रियता और उत्तेजना भी पैदा कर दिया करता है। मैं मुस्तैदी से ट्राली में चीजें भरने लगी – टूथपेस्ट, रिफांइड ऑयल, कंडेस्ड मिल्क, टैलकम पाउडर, साबुन… कि अचानक ‘हाय रितु!’ मैं खुशी के मारे चीख उठी। हाथ में बोर्नवीटा का डिब्बा अभिवादन के झंडे की तरह जोर-जोर से हिलाते हुए। ‘तू तो बिल्कुल नहीं बदली यार! जैसे बीस बरस अनछुए निकल गए हों।’ मैं और मेरी खुशी! वक्त ठिकाना देखे बिना झरने को तैयार!

रितु हत्प्रभ सी मेरी ओर देखती रही। ‘आप? आप तो…’ वह असमंजस में थी।

‘यह आप-आप क्या लगा रखी है? खासा इलीट एक्सप्रेशन सीख लिया है।’

‘आप मिसेज अलका नंदा नहीं?’

‘मैं मिसेज अलका नंदा?’ ठहाका लगाते-लगाते मैं ठिठक गई। ‘तूने ज्योतिष विद्या सीख ली है? माथा देख कर मन में हो रही हलचलों को जानने की बुर्जुआ विद्या?’ मैं खींचने लगी उसे।

‘माथा न तेरा सिर!’ एक जोरदार धौल मेरी पीठ पर जड़ दिया उसने। अभी बहुत बन-बन कर कह रहीं थीं आप – मैं मिसेज अलका नंदा।’

मैं बेतहाशा हँस दी। ‘हाय मिसेज अलका नंदा! ऑफ कोर्स आय’म मिसेज नंदा टू।’

‘ऐऽ, ऐनीथिंग सीरियस? आइडेंटिटी क्राइसिस का मामला है क्या? दोहरा व्यक्तित्व, दोहरी पहचान…?’

‘रितु, तू पागल है। जस्ट मैड। असल में मिसेज नंदा मेरी कहानी की एक पात्र हैं।’

‘फुलिश! तू अभी भी कहानियाँ लिखती है? डोंट टैल मी दैट।’

‘ममी!’ कोक और चिप्स खत्म कर ईशु मेरे पास आ गया। साड़ी के पल्लू में अपने को ढकते और उघाड़ते हुए हमारा ध्यान अपनी ओर खींचने की कोशिश में व्यस्त।

‘तेरा बेटा है? हलो बाबा।’ उसने झोले से चॉकलेट का एक पैकेट निकाल कर लहराया। ‘कम ऑन।’

मैं उसे देखती रही। वही पहले सी वेशभूषा। सजग लापरवाही से बिखरी और क्रश्ड कॉटैज इंपोरियम की महँगी सूती साड़ी, डिजायनर्ज ब्लाउज, कोल्हापुरी चप्पल, शांतिनिकेतनी झोला, मेकअपविहीन चेहरा, ब्लंट कटिंग और उड़ती लटों को थामते सिर पर अटके सनग्लास…। मुझे अपना व्यक्तित्व कुछ ज्यादा ही लिपा-पुता नजर आने लगा। सूती हरी साड़ी कुछ ज्यादा ही चटख, मैंचिंग हरी बिंदी कुछ ज्यादा ही बचकानी, मैरून लिपस्टिक कुछ ज्यादा ही कंजरवेटिव, लैदर पर्स जरूरत से ज्यादा बुर्जुआ और ऊँची एड़ी के सैंडिल पूरी तरह फ्यूडल। फिर फूल कर डबल हो गई मेरी काया। पसीना पोंछने के बहाने मैंने टिशू पेपर निकाल कर लिपस्टिक की रंगत को हल्का कर लिया।

‘बेटा बहुत छोटा है तेरा। शादी-वादी देर से हुई?

”नहीं तो।’ पूरे पुरखिनोंवाले अंदाज में मुझे बताना पड़ा, ‘वक्त पर ब्याह हुआ, वक्त पर औलाद। बड़ी बेटी सोलह साल की है।’

‘और ये महाशय पाँच साल के। स्ट्रेंज!’

‘और रिंपी दीदी नाइन इयर्ज की। है न ममी?’ ईशु ने अपना ज्ञान उड़ेला। मैं पानी-पानी हो गई। पुरखिन नहीं, आदिम कबीलाई औरत! अनकल्चर्ड! अनसिविलाइज्ड! बच्चा जनने की मशीन!

‘आओ, तुम्हें अपने हबी से मिलवाऊँ।’ रितु शरारत से मुस्कराई।

‘निखिल दा!’ मैं अचरज के मारे किलक उठी। ‘देखा, हम न कहते थे आप दोनों के बीच कुछ पक रहा है।’ निखिल दा भी जस के तस। बालों की सफेदी रंग लें, तो।

‘क्या कर रही हो आजकल?’

‘निखिल, ये फुलिश अभी भी कहानियाँ लिखती है। रादर कहानियों में जीती है।’

‘अच्छा।’ निखिल दा की प्रतिक्रिया में हैरानी या खुशी कम, हुंकारा ज्यादा था। हमेशा की तरह। सरिता कहा करती थी, निखिल दा को देखो तो लगता है मुर्दा अभी-अभी कब्रिस्तान से निकल कर चला आ रहा है। मैं मन ही मन मुस्करा दी।

‘पता है शालिनी क्या चाहती थी मुझसे? कि लाइब्रेरी के निर्जन कोनों में बैठ कर मैं इसके साथ साहित्य डिस्कस किया करूँ। माय गॉड!’ रितु हँसते-हँसते लोटपोट हो गई। ‘यू आर स्टिल सो इम्मेच्योर शालिनी और…’

‘ममी!’ ईशु की समझ के घेरे से बहुत दूर चली गई थी बात। वह केंद्र में रहने का आदी था। जोर से पल्लू खींच लिया, ‘चलो।’

‘चलो बेटे।’ मुझे रेस्क्यू ऑपरेशन की सख्त जरूरत थी।

‘बाय!’ और तेजी से डिपार्टमेंटल स्टोर से बाहर निकल आई।

पलायन!

खाली पेज के सफेद फ्रेम में मिसेज अलका नंदा का चेहरा साफ-साफ उभर गया। भौंहों पर चिरपरिचित शैली में दुगुने बल।

‘हलो।’ मैंने शेकहैंड की मुद्रा में दाहिना हाथ आगे बढ़ाय। हुलस कर! बेसाख्ता!

‘पलायन नहीं तो और क्या? बेशक व्यवस्था के खिलाफ एक अंतहीन लड़ाई हमें लड़ते रहना है। बेशक प्रदर्शन, धरने, जुलूस हमारे धारदार हथियार हैं, लेकिन हर वक्त इन्हीं का इस्तेमाल… इन्हीं की भाषा… नहीं? सब्जी काटते वक्त हाथ में चाकू का होना जितना जरूरी है, सब्जी खाते वक्त उतना ही घातक, यह क्यों भूल जाते हैं हम? कहीं इसलिए तो नहीं कि नकार और विरोध की शैली जितनी आसान होती है, सकार और सृजन की उतनी ही दुरूह और जानलेवा क्योंकि विजन के साथ जवाबदेही, कमिटमेंट के साथ शहादत भी जरूरी हो जाती है तब?’ मैं जो कभी रितु से नहीं कह पाई, मिसेज अलका नंदा वही सब भरी मीटिंग में बोल रहीं थीं, ‘जड़ों से जुड़ने की बात करते हैं हम, लेकिन किस समस्या की जड़ तक जा कर उसे सारे आयामों में समझने और सुलझाने का प्रयास किया है हमने? सिर्फ ऊपरी सतह खुरच कर सेंसिटिव मुद्दों को जिलाए रखने की कोशिश…

‘हू हू हू’ पिछली सीटों से हूटिंग की जाने लगी। लेकिन मिसेज अलका नंदा को पछाड़ना इतना आसान नहीं, ‘कई बार सोचती हूँ, जिस सामंती सोच के खिलाफ हम मोर्चाबंदी किए है, कहीं उसी की गिरफ्त में तो नहीं फँस बैठे?’

‘आब्जैक्शन!’ एक साथ कई आवाजें उन्हें उखाड़ने को तुल गईं, ‘किस पर फ्यूडल होने का आरोप लगा रही हैं आप? समीर दा को देखिए, कितने बड़े औद्योगिक घराने से संबंध रखते हैं।…और आप, स्मिता जी, कौन नहीं जानता इनके नाना ने तीन सौ एकड़ जमीन मठ के महंत को महज इसलिए दान दी कि वह वहाँ आई हॉस्पिटल बनाना चाहता था।…और ये विभा भावन…’

मिसेज अलका नंदा को इन विरुदावलियों में कोई दिलचस्पी नहीं। ‘वही तो मैं कह रही हूँ। किसी भी क्लासलैस सोसाइटी के बजाय हमारी पार्टी में यही क्लास थ्योरी क्यों? ग्रासरूट की बातें करते नहीं अघाते आप। लेकिन बताइए, पावर डिस्कोर्स से ले कर पॉलिसी डिसीजन तक कहाँ है ग्रासरूट का प्रतिनिधित्व? और कितना?.स्त्रियों के मुद्दे पर धड़ाधड़ सेमिनार-वर्कशाप करते हैं, लेकिन कितनी स्त्रियों को नरक से निकाल कर अपने पैरों पर खड़ा करने में मदद की है? खुद अपने ही आचरण से कुरीतियाँ तोड़ डालने के कितने उदाहरण रख पाए हैं हम? कुछ भी सार्थक-ठोस के नाम पर नौकरी बजाने जैसी कुत्सित…’

एक बार फिर हंगामा बरस गया। धारासार!

‘शांत हो जाइए। शांत!’ अध्यक्ष ने माइक सँभाल कर बेहद संजीदा मुँह बनाया, ‘शर्म की बात है कि छोटी-छोटी गैर जरूरी बातों पर हम बच्चों की तरह लड़ रहे हैं। बंदरों की तरह नोंच-खसोट रहे हैं दूसरों को, जबकि बारूद के ढेर पर खड़ी है दुनिया।’ उनका स्वर पूरी खनक से गूँज उठा, ‘छोटे-मोटे मतभेद होते रहते हैं, पर उन्हें इतना तूल देना… सपनों की सेज पर दुल्हन की तरह बैठ कर समस्याएँ नहीं सुलझतीं। हमारी पार्टी की आइडियॉलजी समस्या की आँख में आँख डाल कर देखने का दावा करती है। प्रदर्शन, धरने और जुलूस सिर्फ लड़ने के हथियार नहीं। अनुकूल वातावरण तैयार करने के औजार भी हैं।’ तालियों की गड़गड़ाहट गूँजने से पहले ही मिसेज अलका नंदा वहाँ से उठ आईं। वे उस घेरे की राजनीति में मिसफिट थीं या वे सब उनकी फिलॉसफी के दायरे में, वे नहीं जानतीं। लेकिन वह दिन और आज का दिन, मिसेज अलका नंदा भूले से भी पार्टी के दफ्तर नहीं गईं। बुलावे मगर आते रहे। वार्षिक और आकस्मिक चंदे की माँग के साथ।

‘एक अरसे तक आप एक सदस्यीय महिला मुक्ति मोर्चा की सदस्य रही हैं। और अध्यक्ष भी।’ मि. अलका नंदा ने नई-नवेली मनीषा को सास का परिचय देते हुए बताया, ‘कोषाध्यक्ष भी और सचिव भी। संरक्षक तो खैर आप थीं ही।’

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‘माने पीर बावर्ची भिश्ती खर।’ मनीषा के खिलखिलाते ही सबके समवेत ठहाके ने देर तक माहौल खुशगवार बनाए रखा।

मिसेज अलका नंदा अब किसी बात का ज्यादा बुरा नहीं मानतीं। वक्त के साथ-साथ चीजों को देखने और जाँचने का नजरिया बदलने लगता है। बल्कि अगर इनसान के पास विकल्प हो कि अपनी जिंदगी को रिवाइंड कर नई इबारत लिख सके तो बिल्कुल अलहदा जीवन जिए। नहीं, इसका मतलब यह नहीं कि खामख्वाह पार्टी छोड़ देने का दुख उन पर तारी हो गया है। असल में पार्टी के जरिए समाज से जुड़ कर वे निजी जीवन में सार्थकता के कुछ उल्लास भरे चटख रंग भरना चाहतीं थीं। पार्टी से छूट कर सीधे समाज से जुड़ने पर उन्हें लगा चटख रंग देर तक टिकते नहीं। फीके हो जाने की नियति और आशंका उन्हें हमेशा उदास और आक्रांत किए रहती है। इसलिए हल्के सोबर रंगों में अभिव्यक्ति ढूँढ़ना सीख लिया था उन्होंने जो कभी धूसर जमीन बन कर जिंदगी को आधार देते हैं तो कभी नीला आसमान बन कर सपनों को विस्तार।

‘ममा, हम भी संग-संग आपकी संस्था ज्वाइन कर लें?’ मनीषा ने हुलस कर पूछा था। आँखों में आहत हिरनी की पीड़ा की जगह पल भर को आशा की लौ कौंध गई। मिसेज अलका नंदा अभी-अभी यानी शाम के साढे सात बजे मद्रास रेजीमेंट के कैंट एरिया से लौट कर आई थीं। दिसंबर के दिन। जाड़ा और अँधेरा दोनों गहराने लगे थे। गर्मागर्म चाय का प्याला ले कर मनीषा हाजिर थी। मृगनयनी की फुर्ती पर उन्हें नाज हो आया। उनके लौटने का वक्त दो-चार मिनट के हेरफेर में अमूमन नियत रहता है।

‘मेरी संस्था? मैं तो एक मामूली-सी वर्कर हूँ बेटे।’ उन्होंने उसके बाल सहला दिए।

मनीषा भीतर तक भीग गई। ऐसे ही उदय और पापा खींचते रहते हैं ममा को। वह इन सबकी रिलेशनशिप देख कर दंग है। सब एक-दूसरे से स्वतंत्र अपने आप में मग्न। मौका मिलने पर छेड़ने-खिझलाने में जरा भी नहीं चूकते। लेकिन भीतर से कितने जुड़े! संबंध क्या पेड़ की जड़ों की तरह होते हैं जो जमीन में दूर तक फैल कर पता नहीं किससे उलझते-जुड़ते चलते हैं? वह सोचते-सोचते उदास हो जाती।

‘इन सबके बीच मेरा वजूद क्या गमले में उगे हाउस प्लांट की तरह नहीं?’ कई बार वह सोचती और एक दमघोंटू बेचैनी उसे चीथ डालती। वह बहुत-बहुत बातें करना चाहती है सबसे – ममा से, पापा से, उदय से। बहुत-बहुत कुछ बताना चाहती है अपने बारे में। जिंदगी में अचानक घट जानेवाले हादसों के बारे में। माँ-बाप की मजबूरियों के बारे में। किन्हीं अवश परिस्थितियों के बारे में जहाँ किसी अनाम शाप को धोने के लिए सच को कतर कर झूठ को प्रतिष्ठापित करना पड़ता है।

‘जिंदगी इतनी गुंजलक भरी क्यों होती है ममा?’ लेकिन थरथराते होंठ और लरजते जिस्म के कारण वह इतना ही पूछ पाती। आँखों में बिंधा आहत भाव रोम-रोम को बींध डालता। पलकें बंद कर अपने को ढाँपने की कोशिश करती तो टप से दो आँसू चू कर उसे और भी नंगा कर देते।

‘सब तुम्हारी वजह से हो रहा है।’ मि. नंदा आजकल टी.वी. पर उतना कन्सन्ट्रेट नहीं करते, जितना मृगनयनी पर। (ओ हाँ, मनीषा को सब मृगनयनी कहने लगे हैं। मानो बरसों से टकटकी लगा कर खिलौनों की दुकान की ओर ताकते मरभुक्खे बच्चों को वाकी-टाकी डॉल मिल गई हो।) ‘न तुम इसे मद्रास रेजीमेंट की उन बेसहारा औरतों के पास ले जातीं, न… उम्र तो देखती इसकी।’

मिसेज नंदा मृगनयनी के प्रति गहरे अपराधबोध से भर उठीं।

मनीषा प्रतिवाद में सिर हिलाने लगी, ‘मैं तो बल्कि… ममा इज ग्रेट।…हम सबको इनकी मदद करनी चाहिए… बल्कि बहुत नाजुक सँभाल की जरूरत होती है इन्हें…’ अचानक उसके गालों पर आँसुओं की लकीरें बहने लगीं, ‘क्या इन सबको घर नहीं दिए जा सकते…?’

‘ममा, मुझे आज फैसला कर ही डालना है कि आप चाहती क्या हैं? मेरा घर बसाना या तुड़वाना?’ उदय गंभीर था, ‘इत्ती बित्ते भर की लड़की और ज्ञान की ऐसी मोटी-मोटी किताबी बातें।’ वह मनीषा की ओर मुखातिब हुआ, ‘अब इंसान और इंसानियत पर भी लंबी तकरीर दे दो न जो रोज स्लीपिंग पिल की तरह मुझे देती हो।’

‘यू शटअप!’ मनीषा इस घर में रच-बस कर तकरार और प्यार की अंतर्लीन लहरों के रंग और उठान को जान चुकी है। बिंधी आँखों में हिरनी की चपलता चहकने लगी।

‘देखा, कैसे फेमिनिस्टिक तेवर! पापा, अब तो मुझे आपकी शरण में आना पड़ेगा।’

और ठीक यहीं मेरे बॉल पेन का रीफिल खत्म हो गया। झख मार कर आज का लिखा हिस्सा पढ़ा तो माथा पीट लिया। दूसरी सिटिंग ने तो मिसेज अलका नंदा का कैरेक्टर ही बदल दिया। कहाँ सब पर हुकूमत चलाती अनुशासनप्रिय रिंगमास्टर टाइप मिसेज अलका नंदा और कहाँ मदर टेरेसा बनने की कोशिश में सॉफ्ट और डिवाइन टच लेती मिसेज नंदा। चिढ़ कर मैंने कागज मेज की दराज में बिछे अखबार के नीचे ठूँस दिए।

इस वक्त मैं स्वीटी के साथ म्यूजिक शॉप में हूँ। आज ही स्वीटी के दसवीं के इम्तिहान खत्म हुए हैं। उसने वादा लिया था, इम्तिहान खत्म होते ही वह वैंगा ब्वायज और शकीरा की ऑडियो कैसेट खरीदेगी (और दिन भर म्यूजिक सिस्टम पर तेज-तेज बजा कर मुझे बहरा करेगी) और ‘हैरी पॉटर’ और ‘स्पाइडरमैन’ की वीडियो सी.डी. लेगी। स्कूल यूनीफार्म में वह तन्मयता से सी.डी. के सुनहरे संसार में खोई है और मैं गजल और भजनों के कैसेट्स के बीच अपनी पसंद और चुनाव को शक्ल और तरजीह नहीं दे पा रही हूँ।

‘हलो!’ निखिल दा पता नहीं कहाँ से नमूदार हुए। पीछे-पीछे लपकती-सी रितु। (इस रितु की वार्डरोब तो एक दिन चुरानी पड़ेगी।) दोनों के हाथों में ढेर-ढेर कैसेट्स।

‘अरे आप!’ मैं चकित, ‘इतनी कैसेट्स! दुकान-वुकान खोल रहे हैं क्या?’

मेरी बात अनसुनी कर दोनों एक-एक कैसेट काउंटर पर जमाने लगे। क्लासिकल वोकल और इंस्ट्रूमेंटल। कुछ सुगम संगीत भी।

‘हम कल गुजरात जा रहे हैं।’ रितु ने बताया।

‘अरे!’ मैं अपने में और भी सिमट गई। गुजरात का वहशी नरसंहार और मैं… घर-गृहस्थी और बच्चों की दुनिया में मस्त।

‘सरकार और सरकारी सहायता के भरोसे कुछ नहीं होनेवाला इस देश में। पूरे डेढ़ महीने से हैवानियत की आग में जल रहा है गुजरात और बताओ क्या किया इन नेताओं ने?’ वह जवाब तलब करने के अंदाज में बरस पड़ी।

‘पार्टी डेलीगेट्स के तौर पर हम दोनों जा रहे हैं। पूरी खोजबीन करके ही आएँगे। मामला इतनी आसानी से अनदेखा नहीं किया जा सकता।’

‘हाँ, वो तो है।’ मैं बस इतना-सा ही फूटी। वे देर तक धर्मांध सरकार के फासिस्ट चरित्र को बेनकाब करते रहे और मैं नुक्कड़ के शिव मंदिर में रहनेवाले शिव भोले से मनौती मनाती रही कि स्वीटी इनके सामने न आए, न आए। स्वीटी और उसके हाथ में थिरकते अनकल्चर्ड वैंगा ब्वायज और शकीरा…

‘ओ.के.। सी.यू.।’ वे मुड़े तो मैंने राहत की साँस ली।

‘बाय द वे,’ रितु जाते-जाते जरा सा रुकी, ‘तुम्हारी मिसेज अलका नंदा के क्या हालचाल हैं?’

‘मिसेज अलका नंदा!’ अरे, मैं तो भूल ही गई थी।

घर आ कर मैंने मिसेज नंदा को कैद से रिहा किया। ‘सॉरी!’ मैं क्षमाप्रार्थी हो आई। उन्होंने माइंड नहीं किया। बेहद नर्वस थीं… बौखलाई… पगलाई… नहीं, कुछ और। मैं ठीक से कह नहीं पा रही हूँ, लेकिन ऐसे कि गाज गिरी हो उन पर, कि सब कुछ तोड़-फोड़ देना चाहती हों, किएकदम गूँगी, डिजेक्टेड, परास्त और त्रस्त…

‘क्या हुआ मिसेज अलका नंदा?’ मैंने सहमे स्वर में पूछा।

उन्होंने तीखी नजर से अत्यंत कातर हो मुझे देखा।

‘सब ठीक तो है?’ मैटर्निटी वार्ड में जन्म और मृत्यु का प्रत्यक्ष क्रम निरंतर चलता रहता है।

‘हाँ।’ उन्होंने अस्फुट-सा बुदबुदा भर दिया और कपड़ों में लिपटी एक बंडलनुमा चीज मेरी ओर बढ़ा दी।

साँस लेता नरम गुलाबी स्वस्थ बच्चा!

‘बधाई हो मिसेज नंदा! दादी बन गईं आप।’

‘हाँ’ बच्चे के चेहरे पर नजरें गड़ा कर बोलीं, ‘बच्चा सतमासा नहीं। दसवें महीने में जन्मा है।’

‘मैं मुस्करा दी। ‘उदय और मनीषा शादी से पहले इतना घुलमिल गए थे?’

‘कहाँ? मँगनी के ठीक दसवें दिन तो शादी हो गई थी।’

मैं चुपचाप वहाँ से खिसक ली। वाकई समस्या काफी गंभीर है। मेरी छोटी-सी सुखी गृहस्थी! दूसरों के जंजाल में खामख्वाह क्यों उलझूँ? चौराहे पर किसी से टकरा जाने का मतलब यह तो नहीं न कि आप उसकी मंजिल भी तय करने लगें।

‘पलायन!’ वक्त और मौका सही होता तो मिसेज अलका नंदा फुफकार कर मेरा रास्ता रोक लेतीं। लेकिन इस वक्त दो विकराल तथ्य मुँह फाड़ कर उन्हें निगलने को तैयार थे। एक यह कि वे ठगी जा चुकी हैं और दूसरा कि समाज में मुँह दिखाने की ताब नहीं रही उन्हें।

‘मृगनयनी और रंगा सियार?’ क्रोध और अपमान उन्हें भीतर ही भीतर खाए जा रहा है।

‘एक मैं ही मिली उन लोगों को मूर्ख बनाने के लिए।’ उन्हें लगा वे मिसेज अलका नंदा नहीं थीं जिन्होंने मनुहार से मनीषा का हाथ माँगा था, बल्कि मनीषा के माँ-बाप थे जिन्होंने धोखे से उसे उनके गले मढ़ दिया था।

‘पता नहीं कहाँ-कहाँ मुँह मारा होगा लड़की ने?’ उन्हें घिन हो आई।

‘पाप की निशानी!’ हाथों में थमे उस बंडल को वे झूले में पटक आईं। रोता है तो रोए, उन्हें क्या।

वो तो शुक्र है कि मि. नंदा इन दिनों बाहर गए हुए हैं। सारा वाकया जान-बूझ कर तमक उठते तो क्या आसानी से चुप कराया जा सकता था उन्हें? सदा का चुप्पा मर्द एक बार बिफर पड़े तो सिधाना मुश्किल हो जाता है। वे उन्हें बहुत-बहुत मिस करने लगीं। दुख और अपमान शेयर करने को कोई तो मिलता। क्या पता तुरत-फरत निर्णय ले कर वे उन्हें अनिर्णय की लंबी बेचैनी से उबार ही लेते। जीवन में पहली बार मिसेज अलका नंदा ने अपने को इतना कातर और असहाय महसूस किया। खट् से उन्हें लगा, हर औरत के भीतर उसकी दादी-नानी जैसी बेहद कमजोर औरत भी रहती है साए की तरह। वे उसे झटक नहीं पाईं। बस, अपलक निहारती रहीं। मि. नंदा की इंतजार करते-करते उन्हें उस कमजोर औरत में एक टिपिकल सास दिखाई दी। ‘क्यों न बच्चे समेत पैक करके इसे इसके मायके भिजवा दूँ? अपनी प्राब्लम, आप निबटें। बहुत मूर्ख बन लिए हम लोग।’

उदय?

उदय को सब साफ-साफ बता दूँगी। वो क्यों किसी का पाप अपने घर रखना चाहेगा? रखना ही चाहे तो रख लो भाई। अपना अलग घर बसाओ। बस, हमें बख्श दो।

एक अदद निर्णय पर पहुँच कर मिसेज अलका नंदा ने इत्मीनान की साँस लेनी चाही, लेकिन साँसें पथरीली जमीन के नीचे दबी थीं शायद। वे घुटन में ऊलजलूल हरकतें करने लगीं। नाखूनों को चबा-चबा कर उँगलियाँ जख्मी कर डालीं। रौंद-रौंद कर अस्पताल का लंबा गलियारा अधमरा कर दिया। और अब… और कुछ नहीं सूझा तो लिफ्ट से ऊपर नीचे आने-जाने लगीं। सैकिंड फ्लोर… फिफ्थ फ्लोर.. ग्राउंड फ्लोर… थर्ड फ्लोर…। लोग परेशान हो कर उन्हें घूरने लगे। वे अस्पताल से बाहर निकल आईं। लॉन में बोगेनवेलिया के झाड़ के नीचे बैठ गईं। ताजा हवा! साँस! लंबी-लंबी साँस लेने की सारी कोशिशें निष्फल। पेड़ों के पास बैठ जाने से पथरीली जमीन अपने आप पोली नरम हरी-भरी नहीं हो जाया करती। माथे पर हाथ रख वे देर तक मातम मनाती रहीं।

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अचानक वे मनीषावाला ‘लफड़ा’ जानने को बेचैन हो उठीं। क्या हुआ होगा उसके साथ? प्रेम… मोहब्बत… शारीरिक अंतरंगता… फिर लड़का धोखा दे कर चपंत हो गया होगा… आम फार्मूला फिल्मों की तरह। छिः! प्रेम जैसी मूल्यवान निधि को कितना बाजारू बना देते हैं छिछोरे लोग।

हो सकता है, लड़का शादी करना चाहता हो। मनीषा के माँ-बाप ही राजी न हुए हों। नाराजगी की वजहें कई हो सकती हैं – जाति, लड़के के परिवार की हल्की आर्थिक-सामाजिक हैसियत, लड़के की नौकरी-स्टेटस… या दोनों परिवारों की पुश्तैनी दुश्मनी (हालाँकि आखिरी विकल्प उन्हें इस प्रेम (?) संबंध की ही तरह ओछा और बचकाना लगा।) गाँव में होते दोनों तो गाजर-मूली की तरह कब के कट गए होते। अखबार की नृशंस सुर्खियाँ आँखों के सामने गुजरीं तो पता नहीं क्यों हर बार की तरह वे भय, दहशत और आतंक से सिहरी नहीं, बल्कि गँड़ासा, चारा काटने की मशीन, कोल्हू जैसे ‘हथियार’ अपनी घातक मासूमियत के साथ मनीषा के इर्दगिर्द मँडराते दिखने लगे।

‘आप यहाँ बैठी हैं? चलिए चलिए, जल्दी।’ वार्ड असिस्टैंट लगभग खींचते हुए बोली, ‘इमर्जेंसी!’

‘ओफ्फोहो! छोड़ो मुझे। ऐसे क्या भगाए ले जा रही हो? इमर्जेंसी है तो है। मेरे जाने से ठीक हो जाएगी?’

असिस्टैंट भौंचक देखती रही। थोड़ी देर पहले तो कैसे घबरा-घबरा कर हमारे भी हाथ-पैर फुला दिए थे। और अब… हुँह! कंधे उचका कर सपाट अंदाज में सूचना भर दे दी, ‘पेशेंट की छाती में दूध जम गया है। बच्चे के वास्ते बोटल फीड का इंतजाम कर लो।’

अनिश्चित-सी वे घास से उठ गईं। वार्ड में दाखिल हुईं। कमरे का दरवाजा जरा-सा ठेल कर देखा।

‘बच्चे को देख कर तो दूध उतरना चाहिए। क्लॉटस का क्या मतलब… ?’ डॉक्टरों की टीम गंभीर हो कर डिस्कस कर रही थी।

वे बाहर निकल आईं। वार्ड… लंबा गलियारा… सीढ़ियाँ… फिर लंबा गलियारा… रिसेप्शन… लॉबी… वे वहीं सोफे पर बैठ गईं। सामने टी.वी. चल रहा था। वही इश्किया गाने… मेज पर आज और कल के हिंदी-अंग्रेजी के अखबार। कुछ हैल्थ जर्नल्स। उन्होंने अखबार उठा लिया। अनमने ढंग से पन्ने पलटने लगीं। वही रोज की खबरें। घोटाले… तहलके… हंगामे… बायकाट… एक्सीडेंट्स… खूनखराबे… सुसाइड… रेप…

रेप!

ठक् से कुछ बजा।

हाँ, यह भी तो हो सकता है।

नहीं नहीं

क्यों नहीं?

हँ… हाँ… पर…

तो?

ओफ्फ! ओफ्फ! ओफ्फ!

उफ!

भीतर से इनसान ऐनमेन फ्यूडल क्यों होता है भला? जब भी देखेगा, दूसरे को कटघरे में खड़ा करके ही देखेगा। जबकि…

कितने फ्रीक्वेंट हो गए हैं रेप इन दिनों! गटागट पूरी बोतल कोक-पेप्सी गटक जाने की तरह…

खबर पर उनकी नजरें गड़ी रहीं। मानो इसके आरपार घटनेवाले पूरे हादसे, चीख, दहशत, समझौते और झूठ एक खास शक्लोसूरत ले कर उनके सामने जीवंत हो उठे हों।

मृगनयनी!

मृगनयनी!!

उन्हें हर तरफ बाण से बिंधी बेबस आँखें दिखाई देने लगीं।

अचानक पता नहीं क्या हुआ कि एक ऊलजलूल हरकत और कर डाली मिसेज अलका नंदा ने। हड़बड़ी में उठीं। मेज से टकरा कर गिरते-गिरते सँभलीं। बदहवासी में पर्स वहीं सोफे पर भूल अस्पताल के निःसीम शांत गलियारे को सैंडिल की खट्-खट् से गुँजाते दौड़ने लगीं। धड़ाम से वार्ड का काँच का दरवाजा धकेला और भड़ाम से कमरे में दाखिल हुईं। फिर पालने में लेटे बच्चे के भाल पर बेहद नर्म-निर्मल चुंबन जड़ कर मनीषा की ओर देखा। उतनी ही नर्म-निर्मल मुस्कान के साथ।

‘खाना बहुत बढ़िया बनाती हो। वाकई सुघड़ गिरस्थन हो।’ निखिल दा ने सचमुच उँगलियाँ चाट डालीं। बिना किसी शर्म या संकोच के।

थैंक्स! मैंने अपने को कहने से रोका। ये लोग ऐसी औपचारिकताओं को बुर्जुआ कह कर हँसते हैं। आज ही गुजरात से लौटे हैं दोनों पति-पत्नी। रितु का फोन आया था शाम को। ‘खाना-वाना तैयार करके रखना हमारा। आज तेरे घर डिनर। इतने थके हैं कि…’

‘हाँ हाँ, क्यों नहीं।’ मैं उत्तेजित और उत्साहित हो गई। खाना बनाने में मुझे हमेशा आत्माभिव्यक्ति जैसी ‘शास्त्रीय’ अनुभूति होती है। बढ़िया डिनर के बाद मैंने क्रीम कॉफी ऑफर की।

‘भई, तेरे जैसी बीवी की तो मुझे भी दरकार है।’ पहला सिप भरते ही रितु गद्गद् हो गई।

‘तू तो ऐसे कह रही है जैसे बीवी न हुई टुकड़ों पर पड़नेवाला मुंडू हुआ या लैप डॉग।’

‘तो बीवी और होती क्या है?’ निखिल दा हो हो कर हँस दिए। ‘और मजे की बात यह कि हमारे घर दो-दो शौहर हैं, बीवी एक भी नहीं।’

‘जरूरत है जरूरत है जरूरत है, इक शिरीमती की, ल ललललल की, सेवा करे जो पतीऽऽ की’ रितु मेज पर उँगलियाँ बजा-बजा कर गाने लगी।

खट्! मेरे भीतर कुछ टूट गया।

पतिदेव मेरी उखड़ी मनोदशा भाँप गए। ‘रीहैबिलिटेशन प्रोग्राम कैसा चल रहा है गुजरात में?’ उन्होंने ‘शो मस्ट गो ऑन’ वाले अंदाज में बात जारी रखने की कोशिश की।

उँगलियाँ समेट कर रितु का चेहरा तमतमा आया। निखिल दा दूर कहीं खो गए। चुस…चुस… कॉफी की चुस्कियों के बीच खामोश चुप्पी सुर-ताल में बोलती रही।

‘कैसा प्रोग्राम? सब रोटियाँ सेंकने में लगे हैं।’

‘उस सरकार से और उम्मीद भी क्या की जा सकती है जिसके लिए मंदिर और हिंदुत्व के परे कोई चीज मायने ही नहीं रखती।’ रितु की प्रतिक्रिया।

‘नहीं, फिलवक्त इन बातों को तरजीह देने की जरूरत नहीं गोकि वे भी अपनी जगह अहम हैं और अनअवाएडेबल।’ निखिल दा रुक-रुक कर बोलने लगे, ‘हमारी पार्टी के सामने पहली प्राथमिकता सियासी बातों को तूल देने की बजाय अमन और सद्भाव का माहौल बनाने की है ताकि सारी पार्टियाँ मिलजुल कर रीहैबिलिटेशन में जुट सकें।’

‘निखिल, यू आर जस्ट ए डे ड्रीमर।’ रितु हाथ नचा कर चीख पड़ी, ‘बगुले भगत ये मंत्री और सांप्रदायिक घृणा से ताकत पाती यह सरकार… कुछ नहीं होगा। जान लो, सांप्रदायिक दंगा नहीं, बल्कि एक अल्पसंख्यक समुदाय को चुन-चुन कर खत्म कर डालने के लिए फैलाया गया योजनाबद्ध आतंकवाद है यह। पुलिस तक ड्यूटी बजाने की बजाय अपने ‘हिंदुत्व’ की रक्षा में बेचैन। छिः!’

वे देर तक वहाँ की दर्दनाक कहानियाँ सुनाते रहे। दंगाइयों का धार्मिक उन्माद… युद्ध सरीखी कार्य योजना… लूटपाट… अमानवीय कत्लेआम… फिर अपनी पार्टी की बात… इतनी मैन पावर, इतने डॉक्टर, इतने वालंटियर, इतनी दवाइयाँ, इतने कपड़े, इतना खाना, इतना…। पहले दिन से ले कर आज तक हमारी पार्टी एक टाँग पर खड़ी हो कर क्या-क्या नहीं कर रही…।

‘भूकंप हादसे के तुरंत बाद भी मैं वहाँ गया था…’

‘आपने भी मलबा हटा कर लोगों को बाहर निकाला था?’ स्वीटी की आँखों में जिज्ञासा और श्रद्धा का मिला जुला रंग उभर आया।

‘नहीं। वो सब वर्करों का काम है।’ एक अनचाहे प्रसंग में घसीट लिए जाने की वेदना निखिल दा के चेहरे पर फैल गई।

‘ऐसी जड़ता फैली है हमारे सिस्टम में कि रोजमर्रा की छोटी-मोटी चीजें मुहैया कराने के लिए भी आसमान से तारे तोड़ लाने जितनी मशक्कत करनी पड़ती है। मसलन…’

‘मसलन कोई पंप।’ मैं बेसाख्ता बोल उठी।

‘पंप?’ निखिल दा बेवकूफ से मेरा मुँह ताकने लगे।

मैं झेंप गई। ‘असल में किसी पत्रिका में इजाबेल अलेंदे की कहानी पढ़ी थी उन्हीं दिनों। बिल्कुल जैसे गुजरात ट्रेजेडी साकार हो उठी हो।’

सोफे पर पीठ टिका कर निखिल दा ने आँखें मूँद लीं। मैं शर्म से पानी-पानी हो गई। बात की संजीदगी को ऐसे पल भर में डिफ्यूज कर डाला।

‘तेरी कहानी का क्या हुआ? मिसेज अलका नंदावाली? पूरी हो गई?’ रितु ने बात मोड़ दी।

‘हाँ।’ मैंने कसैला-सा मुँह बनाया, ‘…और रिजेक्ट भी हो गई।’

‘देखें।’ निखिल दा ने हाथ फैला दिए।

‘आप?’ कोई और बेवकूफी करने से पहले मैंने कहानी उन्हें थमा दी।

‘हूँ।’ कहानी पढ़ कर लंबा-सा हुंकारा भरा उन्होंने। गूँगा हुंकारा। मैं बेहद नर्वस। नाखूनों को बुरी तरह चीथते हुए।

‘यथार्थवाद के बारे में कभी कुछ पढ़ा है? टेक्स्ट बुक्स के अलावा?’ उन्होंने सवाल किया।

‘हाँ… नहीं…’ मैं घबरा गई।

‘पढ़ो।’ उन्होंने फिर आँखें मूँद लीं।

मैं आतंक के मारे वहीं जड़।

‘क्या हुआ?’ रितु ने दिलचस्पी से कहानी उठा कर पन्ने पलटने शुरू कर दिए।

‘मेरा मानना है कि रेप कोई छोटी समस्या नहीं। ‘एक लंबी अखरती चुप्पी के बाद निखिल दा बोले, ‘इसके पीछे हजारों साल के समाज की संरचना का उलझा शास्त्र है… जो वक्त के साथ-साथ बदलता भी रहा है और वहीं जड़ भी खड़ा है…’ मुझे क्लास रूम लेक्चर की तरह निखिल दा बेहद बोर लगे। कहानी पसंद नहीं, बात खत्म। अब इतनी मीमाँसा! बाल की खाल!

‘…और एक खास तरह का मनोविज्ञान भी। आपस में गुत्थमगुत्था हैं सारी ध्वनियाँ। सारे सूत्र।’ पता नहीं वे और क्या-क्या बोले। जो याद रहे, वे आखिरी चंद शब्द यही थे।

‘जी।’

‘…अब तुम्हारी कहानी को लें। दरअसल तुम्हारा नैरेटर का चुनाव ही गलत है। …आउटसाइडर से इनसाइडर होते ही आप गैर जरूरी रूमानियत से घिर जाते हैं। बचना चाहें भी तो नामुमकिन। और यहीं कहानी…’ खलास की बंबइया मुद्रा में हाथ हिला कर उन्होंने चुप्पी साध ली।

‘शालिनी की प्रॉब्लम यह है कि वह अपने ही गढ़े पात्र के सम्मोहन में कैद हो गई है। किसी भी औसत भारतीय माँ की तरह। मुनिया, याद रखो, कहानी को एक सुनिश्चित अंत देने का मतलब है लेखक के तौर पर अपनी सीमाओं और जड़ताओं को उजागर कर देना।’ रितु मजे से पैर झुला रही थी।

‘नहीं।’ अचानक मुझे लगा, मेरे पास बोलने के लिए बहुत कुछ है। मिसेज अलका नंदा के बारे में। मृगनयनी के बारे में। दोनों के बीच घटते-बढ़ते-मिटते फासलों के बारे में। ‘ऐसा क्यों है कि रेप की बात आते ही हमारा सारा ध्यान लुटी-पिटी लड़की पर केंद्रित हो जाता है, तमाम करुणा और आक्रोश के साथ? क्यों रेपिस्ट को इतना निर्गुण-निराकार बना देते हैं हम? एक बार उसे कोई शक्ल दे दीजिए – क्या अपना पति-पिता, भाई-बेटा उसमें नजर नहीं आने लगेगा?’ मेरे स्वर में सख्ती थी या आत्मविश्वास कि रितु और निखिल दा दोनों चौंक गए।

क्षण भर को सब कुछ ठहर गया। फिर अस्पष्ट-सा रितु कुनमुना उठी, ‘कुछ भी कहो, इतना तय है कि ऐसी लड़कियों की जगह ‘नारी निकेतन’ हैं। घरों में इन्हें बहू-बेटियों के बीच नहीं रखा जा सकता।’ रितु की असहमति पुरजोर हो गई, ‘ऐसा हो सकता होता तो क्यों इतने डिवोशन से इतनी महिला संस्थाएँ चलाते हम लोग?’

‘भई शालिनी, ऐसे तो एक दिन हमारी दुकानदारी ही खत्म करा दोगी तुम?’ निखिल दा हो हो कर हँस दिए।

‘एक-एक कप कॉफी और हो जाए। क्या ख्याल है?’

सख्ती से होंठ भींच मैं उठ खड़ी हुई। बिना आईने के भी ठीक-ठीक देख पा रही हूँ, मेरी भौंहों में गहरे बल पड़ गए हैं। ऐनमेन मिसेज अलका नंदा की तरह।

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आत्मजा – Atmaja

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