असीम | अनुराग शर्मा
असीम | अनुराग शर्मा

असीम | अनुराग शर्मा – Asim

असीम | अनुराग शर्मा

वह अंदर क्या आई, सारा दफ्तर महक उठा था। रोजाना की उन ग्रामीण गंधों के बीच यह खुशबू ही उसके आने का पता मुझे देती थी। तब मैं महाराष्ट्र के एक छोटे से गाँव में एक सरकारी बैंक में एक प्रोबेशनरी अधिकारी की अस्थायी पोस्टिंग पर था। अपने जीवन में पहली बार मैं अपने परिवार से दूर एक ऐसी जगह में था जहाँ की भाषा एवं संस्कृति मेरे लिए नई थी। शाखा में मेरे अलावा पाँच व्यक्ति थे। सभी लोग बहुत अच्छे और नेक थे। अपने स्वभाव के अनुकूल मैं भी दो-एक दिन में ही इस परिवार का अटूट हिस्सा बन गया।

प्रोबेशनरी होने के कारण मैं अपने बैंक की इस शाखा के नियमित स्टाफ में नहीं गिना जाता था। मेरे बैठने के लिए कोई निश्चित जगह भी नहीं थी। आज यहाँ तो कल वहाँ। मुझे बैंकिंग के सभी आयाम सीखने थे और शाखा में मेरे लिए काम की कोई कमी न थी। घाटे, जोशी, योलेकर और पंवार मुझसे कहीं वरिष्ठ थे। सिर्फ ममता ही मेरी हमउम्र थी। उसने बैंक टाइपिस्ट की नौकरी मुझसे कोई तीन महीने पहले शुरू की थी। वह एक पतली दुबली, आकर्षक और वाक्पटु लड़की थी। वैसे तो सबसे ही हँस बोलकर रहती थी लेकिन मुझसे कुछ अधिक ही घुल मिल रही थी। हाँ, नटखट बहुत थी। मुझे तो हमेशा ही छेड़ती रहती थी।

उस दिन मैं शाखा के एक कोने में अकेला बैठा हुआ रोजनामचा लिख रहा था। तभी ममता अपनी चिर-परिचित मुस्कान बिखेरती हुई आई और मेरे सामने बैठ कर एकटक मुझे देखने लगी। मैं भी औपचारिकतावश मुस्कराया और फिर अपने काम में लग गया।

“क्या कर रहे हो?” उसने पूछा, “इतना सुंदर लिखते हो तुम।”

फिर मेरे जवाब का इंतजार किए बिना ही बोलती चली गई।

“तुम्हारी लाइन तो तुम्हारी तरह ही है, सुंदर, साफ और स्पष्ट।”

मैंने काम रोककर उसकी और देखा और देखता ही रह गया। सुंदर तो वह हमेशा ही थी, पर आज कुछ ज्यादा ही आकर्षक दिख रही थी।

“देख क्या रहे हो…” उसके चेहरे पर शरारत नाचने लगी, “तुम्हारी लाइन तो बिल्कुल क्लियर है।”

उसके कथन ने मुझे हतप्रभ कर दिया। इससे पहले कि मैं कुछ कह पाता, वह उठी और बोली, “डरो मत निखिल, मैं तुम्हें खाने वाली नहीं हूँ।”

वह खिलखिलायी और मेरे उत्तर का इंतजार किए बिना अपनी सीट पर चली गई। मैं आश्चर्यचकित रह गया। अजीब लड़की है यह। मुझे तो इसकी कोई बात समझ नहीं आती है।

उस बार संपूर्ण शाखा की तनख्वाह तैयार करने का काम मुझे दिया गया। शायद वह भी मेरी ट्रेनिंग का एक हिस्सा था। मैं एक कोने में बैठा हुआ खाते और केलकुलेटर से जूझ रहा था कि फिजाँ में खुशबू सी तिरने लगी। हाँ, वह ममता ही थी। उसने मेरी सहायता करने की पेशकश की जिसे मैंने सहर्ष स्वीकार कर लिया। इतने खूबसूरत सहायक को कोई मना भी कैसे कर सकता था। मैं सभी कर्मचारियों के मूल वेतन की गणना करने लगा और वह भत्तों की। बड़ी-बड़ी संख्याएँ मेरे सामने कागज पर उलझ रही थी। जोड़ में कोई गलती हो रही थी जिसे मैं पकड़ नहीं पा रहा था। उसने पूछा तो मैंने बताया।

वह बोली, “तो ढूँढ़ो न। प्यार से देखोगे तो कुछ भी मिल सकता है।”

फिर एकटक मुझे देखा, हँसी और धीमे सुरों में गुनगुनाने लगी, “ढूँढ़ो-ढूँढ़ो रे साजना…”

पहली बार मैंने महसूस किया कि वह बहुत सुरीली थी। गाते-गाते वह रुकी और मेरी आँखों में आँखें डालकर फिर से गुनगुनाने लगी। इस बार मराठी में शायद कोई कविता थी या कोई ऐसा गीत जो मैंने पहले नहीं सुना था। गीत के बोल कुछ इस तरह से थे :

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मामूली मछली के पीछे
     दौड़ रहा क्यों इधर-उधर
     यह मोती तेरे पास गिरा है
     दैवी, धवल, अछूता
     क्यों अनदेखी करता उसकी
     ओ निर्मोही मछुआरे
     आगे बढ़कर पा ले उसको
     तप तेरा सार्थक हो जाए
     श्रम का पूरा फल तू पाए
     यह मोती तेरा हो जाए
     यह मोती तेरा हो जाए।

मैं सम्मोहित सा उसका गीत सुनता रहा। गीत पूरा होने पर मेरी तंद्रा भंग हुई। कुछ देर प्रयास करने के बाद वेतन की गणना में हो रही गलती भी पकड़ में आ गई। हम फिर से काम पर लग गए।

जब उसने मेरे पेट्रोल भत्ते के बारे में पूछा तो मैंने कहा, “पाँच।”

“नेट?” उसने पूछा।

मेरा सम्मोहन शायद अभी भी पूरी तरह से उतरा नहीं था इसलिए मैं उसकी बात ठीक से समझ न सका।

“क्या कहा तुमने?”

“मैंने कहा नेट, N-E-T…” वह खिलखिलाई, “और तुमने क्या सुना – नाइटी?”

धीरे-धीरे वह मुझसे और भी खुलने लगी। अब वह हर रोज सुबह को काम शुरू करने से पहले दस पंद्रह मिनट मेरे पास आकर बैठ जाती थी और कुछ न कुछ बात करती थी। एक दिन जब वह अपने स्कूल के दिनों के बारे में बता रही थी, बागळे शरारत से मुस्कुराता हुआ हमारी ओर आया।

“इन लड़कियों से दूर ही रहना निखिल वरना बरबाद हो जाओगे” बागळे फुसफुसाया।

“निखिल बरबाद होने वालों में से नहीं है” ममता ने मेरा बचाव किया।

“तुम्हारे सामने कौन टिक सकता है?” बागळे ने चुटकी ली।

“निखिल तो उर्वशी और मेनका के सामने भी डिगने वाला नहीं, इतना तो मैं जान गई हूँ”, यह कहकर वह खिलखिला उठी।

उसका चेहरा लाल आभा से खिल उठा। उसकी बात सच नहीं थी। मैं डिगने वाला भले ही न होऊँ मगर आजकल मुझे उसका ख्याल अक्सर आता था। शाखा से चले जाने के बाद भी मानो वह अपना कोई अंश मेरे पास छोड़ जाती थी। मैं सोचने लगा कि शायद मेनका और उर्वशी भी ममता के जैसे ही दिखते होंगे। इसीलिए उनकी सुंदरता की उपमा आज तक दी जाती है।

ममता ऑफिस में नहीं थी। वह किसी ट्रेनिंग पर मुंबई गई थी। बागळे अक्सर किसी न किसी बहाने से उसका नाम लेकर मेरी दुखती रग पर नमक छिड़क जाता था। वह पूरा सप्ताह कठिनाई से बीता। खैर, कठिन दिन भी खत्म हुए और वह अपनी ट्रेनिंग पूरी कर के वापस आ गई। सुबह को वह मेरे पास आकर बैठ गई और बिना कुछ कहे मुझे अपलक देखती रही। मैं थोड़ा असहज होने लगा था।

“तुम्हें मेरी याद आती थी क्या?” उसने मासूमियत से पूछा।

“ईअर एंड का इतना काम था। तुम्हें याद करने बैठते तो शाखा ही बंद हो जाती।”

“मैं भी कोई कम व्यस्त नहीं थी ट्रेनिंग में, फिर भी मैं तुम्हें रोज याद करती थी।” यह कहते हुए उसके चेहरे पर उदासी की कालिमा सी छा गई।

“हरदम सोचती थी कि तुम अकेले बैठे होगे, अकेले खाना खा रहे होगे। किसी से कुछ कहोगे नहीं मगर चुपचाप मुझे ढूँढ़ रहे होगे।”

उसकी बात चलती रही, “ट्रेनिंग में एक पंजाबी लड़की भी थी। वह मुंबई की ही एक शाखा से आई थी। पहले दिन से ही मेरी सखी बन गई। वह बिल्कुल तुम्हारे जैसे ही हिंदी बोलती थी। वह जब भी बोलती थी मुझे लगता था जैसे तुम वहाँ पर आ गए हो। अच्छा लगता था।”

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बैंक कर्मियों का गाँव वालों के हृदय में एक विशेष स्थान था। चाहे गाँव के मंदिर में कोई समारोह हो या किसी के घर में, हम लोगों को जरूर बुलाया जाता था। आज काशिद के बेटे की शादी थी। इसलिए वह बुलावा देने के लिए आया था। अब चूँकि मैं भी इस परिवार का एक हिस्सा था, सो मुझे भी बुलाया गया। उसके जाने के बाद ममता मेरे पास आई और धीरे से बोली, “काशिद के घर में हर समारोह में मांस ही पकता है, तुम तो शाकाहारी हो। भूखे रह जाओगे वहाँ पर।”

मैंने सिर हिलाकर हाँ की तो उसने फुसफुसाकर कहा, “तुम मेरे घर आ जाना, मैं कुछ अच्छा बना कर रखूँगी तुम्हारे लिए।”

उस दिन मेरा उसके घर जाना हुआ तो पता लगा कि वह खाना भी बहुत अच्छा बनाती है। लजीज खाने के बाद हमने बैठकर बहुत सारी बातें की। मैंने उसके गाने भी सुने। रात में देर हो गई थी। उसने कहा भी कि अगर मैं उसके घर रुकना चाहूँ तो उसे कोई आपत्ति नहीं है। वापस आने को दिल तो नहीं कर रहा था लेकिन मैं रात में एक अकेली अविवाहित लड़की के एक कमरे के घर में नहीं रुक सकता था। अपनी सभ्यता के लबादे में लिपटा हुआ मैं, मन मारकर वापस घर आ गया। रात में देर तक नींद नहीं आई। उसी के ख्याल दिमाग में आते रहे।

समय कैसे गुजरता गया पता ही नहीं चला। एक बार एक बेइंतहा खूबसूरत नौजवान दफ्तर में आया। वह सीधा ममता की तरफ बढ़ा। ममता भी अपनी सीट से उठकर उसको गले मिली। फिर उसे साथ लेकर मैंनेजर के केबिन में गई। वे दोनों वहीं से बाहर चले गए। दरवाजे से निकलते समय सबकी नजर बचाकर उसने मुझे वेव किया और मुस्कुरा कर बाईं आँख दबा दी।

उनके आँख से ओझल होते ही बागळे मेरे पास आया और बताने लगा कि यह लड़का अनिल ममता का मंगेतर है। लड़का बहुत सुंदर था और हर तरह से ममता के लिए उपयुक्त लगता था। फिर भी खुश होने के बजाए मुझे धक्का सा लगा। ममता की शादी तय हो चुकी है मुझे इसका ख्वाब में भी अंदाजा नहीं था। अनिल को ममता के आसपास देखकर मुझे ईर्ष्या होने लगी। उससे भी ज्यादा दुख इस बात का हुआ कि ममता ने मुझसे अनिल का या अपनी शादी तय होने का कोई जिक्र कभी नहीं किया।

“आज पनवेल चल रहे हो मेरे साथ?” उसने मुझसे हर शनिवार की तरह ही पूछा।

“इस बार तो नहीं। अगले सप्ताह के बारे में क्या ख्याल है?” मैंने हमेशा की तरह ही दोहराया।

दरअसल शनिवार को हमारी शाखा जल्दी बंद हो जाती थी। ममता हर शनिवार को अपने माता-पिता के घर पनवेल चली जाती थी। हर बार वह मुझे साथ ले चलने की बात करती थी। और मैं अगले शनिवार का बहाना करके टाल देता था। ऐसा नहीं कि मैं कभी भी पनवेल नहीं गया। हाँ इतना जरूर है कि उसके साथ जाना नहीं हो सका। एक बार, सिर्फ एक बार मैं पनवेल में था। वह भी शनिवार का ही दिन था। और मैं ही नहीं, मेरे सारे सहकर्मी भी वहाँ थे। यह अवसर था ममता और अनिल के विवाह का।

सुंदर तो वह हमेशा से ही थी। परंतु आज वैवाहिक वस्त्राभूषणों से उसका सौंदर्य दप-दप दमक रहा था। मुझे देखते ही उसका चहकना शुरू हो गया। उसने अपने माता-पिता व अनिल से परिचय कराया। मैंने पहली बार अनिल को इतने नजदीक से देखा। मुझे वह बहुत ही सरल, सज्जन और सभ्य लगा। मुझे खुशी हुई कि ममता उसके साथ खुश रह सकेगी।

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शाखा में हमेशा जैसी ही चहल पहल थी। परंतु उसके बिना सब खाली-खाली सा लग रहा था। दिन इतना लंबा हो गया था कि काटे नहीं कटा। एक-एक दिन कर के दो हफ्ते इसी तरह मुश्किल से गुजरे। पंद्रह दिन के बाद शाखा की रौनक वापस लौटी। मैं शाखा में घुसा तो सब उसे घेरे हुए खड़े थे। वह बहुत खुश दिख रही थी। मुझे देखते ही वह सबको छोड़कर मेरे पास आई। उसने हाथ बढ़ाया तो मैंने हाथ मिलाकर उसे बधाई दी।

“इस बार सच-सच बताना” उसने पूछा, “मेरी याद आती थी न?”

“हाँ” मैं झूठ नहीं बोल सका।

“मुझे भी आई थी। मैं तो सारा वक्त तुम्हारे बारे में सोचती थी।” उसने बेझिझक कहा।

उसकी बात सुनकर मैं जड़वत रह गया। एक तरफ मुझे गुदगुदी भी हो रही थी। ममता जैसी सुंदरी अपने हनीमून पर मेरे बारे में सोचती रही हो। अपनी इससे बड़ी तारीफ मैंने आज तक नहीं सुनी थी। मेरा दिल बल्लियों उछल रहा था। इस अनमोल खुशी के साथ-साथ मन के किसी कोने में मुझे अपराधबोध भी हुआ। लगा जैसे कि मैंने अनिल के शरीर का एक हिस्सा अनाधिकार ही चुरा लिया हो। ईमानदारी की भावना को मेरे गुनाह-ऐ-बालज्जत पर काबू पाते देर न लगी।

“क्या कह रही हो ममता?” मैंने एक-एक शब्द को दृढ़ता से कहा, “मेरे बारे में अब सोचना भी मत। मत भूलो कि अब तुम शादीशुदा हो।”

“तो? क्या मैं इनसान नहीं? निखिल, प्यार कोई मिठाई का टुकड़ा नहीं है जो किसी को देने से खत्म हो जाएगा। यह तो खुशबू है। जितना दोगे उतना ही फैलेगी।”

यह सब बोलते हुए उसके चेहरे पर गजब का तेज था। अपने दोनों हाथों से उसने मेरा दायाँ हाथ पकड़ लिया। उसकी आँखें खुशी से चमक रही थी। एक विवाहिता भारतीय नारी के सारे चिह्नों ने उसकी खूबसूरती को कई गुना बढ़ा दिया था। मेरा चेहरा सुर्ख हो गया था। दिल जोर जोर से धड़कने लगा। मेरे हृदय की हर हलचल से बेखबर वह बोलती जा रही थी।

“मैं एक बहती नदी हूँ और मुझे बहुत दूर तक बहना है। लेकिन अंततः मैं अपने सागर में ही मिलती हूँ। अपने सागर में समर्पित होना मेरा भाग्य है। मेरा सागर अनिल है। और तुम… तुम एक सुंदर, सुगंधित उपवन हो। मैं जब तुम्हारे पास से बहकर चली तो तुम्हें पास से देखने का मन किया। कुछ पल के लिए अपना प्रवाह रोककर मैं तुम्हारे पास बैठ गई। तुम्हें तो पता है कि मैंने अपना कोई भी किनारा तोड़ा नहीं। मैंने तुमसे कुछ भी लिया नहीं। न ही तुमने मुझसे ऐसा कुछ चुराया जो कि मेरे सागर का था। तुम्हारा यह दो क्षण का साथ, तुम्हारी यह खुशबू मुझे अच्छी लगी और मैंने उसे अपने हृदय में भर लिया। यकीन रखो हमने कुछ भी गलत नहीं किया है।”

मैं मंत्रमुग्ध सुनता जा रहा था और वह बोलती गई। दशकों गुजर गए हैं मगर मुझे अभी तक याद है उसने क्या-क्या कहा।

“जब मैं अपने समुद्र में समा रही थी तो तुम्हारी खुशबू भी मेरे साथ थी।”

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असीम – Asim

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