अंतिम चित्र | बसंत त्रिपाठी
अंतिम चित्र | बसंत त्रिपाठी

अंतिम चित्र | बसंत त्रिपाठी – Antim chitr

अंतिम चित्र | बसंत त्रिपाठी

ठीक आधी रात को सेल नं. 3 से गों-गों की और लोहे के जँगले को पीटने की आवाज से प्रहरी की नींद टूट गई। यदि जेलर साहब का विशेष हुकुम न होता तो वह कान में रुई ठूँस कर सो गया होता। लेकिन उसे मजबूरन उठना पड़ा। नींद में लड़खड़ाता-लहराता हुआ वह सेल नं. 3 के सामने खड़ा हो गया।

सेल के बाहर बिजली का बल्ब जल रहा था। उसकी बीमार, पीली और टूटी-टूटी-सी रोशनी सेल के भीतर फैल गई थी। लोहे के जँगले की परछाई सेल की दीवारों पर छपी हुई थी जिसके कारण सेल के भीतर एक और कैदखाने का-सा आभास होता था।

‘क्या है?’ झुँझलाते हुए तीखी आवाज में प्रहरी ने पूछा।

सेल नं. 3 के भीतर बंद कैदी नं. 371 ने इशारे से चॉक माँगा। एक तो नींद का नशा और दूसरा गूँगे से सामना! लानत है ऐसी स्पेशल ड्यूटी पर! प्रहरी ने एक भद्दी-सी गाली दी और लौट गया। थोड़ी देर बाद उसने सेल के भीतर चॉक के कुछ टुकड़े फेंके और फिर उसी पत्थर की बेंच पर लेट गया।

कैदी नं. 371 ने चॉक के टुकड़े इस भाव से उठाए मानो संजीवनी बूटी हाथ लग गई हो! चॉक को हाथ में लिए हुए वह थोड़ी देर तक सामने की दीवार को देखता रहा। उसे उबड़-खाबड़ दीवार, दीवार नहीं बल्कि एक चुनौती लग रही थी। उसकी लाल-लाल आँखों में स्वप्न का एक भीगा हुआ टुकड़ा तैरने लगा।

रात, गाँव के बार से गुजरी एक्सप्रेस ट्रेन की तरह, धड़धड़ाती हुई गुजर रही थी। लेकिन कैदी, ट्रेन के भीतर इत्मीनान से बैठे यात्री की तरह तल्लीन था। वह कोई पाँच-छह घंटे तक दीवार में खोया रहा। बिल्कुल कुशल तैराक की तरह, जो नीले जल में उन्मुक्त तैर रहा हो!

सुबह का एहसास सेंट्रल जेल के भीतर जाग रहा था। रात में सेल नं. 3 की जो दीवार मटमैली और उबड़-खाबड़ थी, वह सुबह तक एक चित्र में बदल गई थी। चित्र में एक समुंदर था। उसके ऊपर से एक चिड़िया एक ही पंख से उड़ी जा रही थी। समुंदर के किनारे हजारों लोगों का हुजूम खड़ा जान पड़ता था और सबसे पीछे एक चेहरा थोड़ा स्पष्ट था जो निश्चित ही किसी लड़की का था।

सुबह के थोड़ा पहले प्रहरी की नींद की खुमारी टूट गई। वह चुपचाप सेल नं. 3 के सामने खड़ा हो गया। कैदी को चित्र बनाते देखना उसके लिए अजीब किस्म का अनुभव था।

बढ़े, काले छितरे बाल, ऊँचा बलिष्ठ शरीर और बड़ा-सा सिर, पूरा डील-डौल ही भयंकर था। लेकिन उसकी हथेली में चॉक का टुकड़ा ऐसे लग रहा था जैसे कोई हत्यारा अपने मासूम बच्चे को प्यार कर रहा हो। प्रहरी के लिए पूरा दृश्य किसी जीवित चित्र से कम न था! कैदी ने जब अपना चित्र पूरा कर लिया तो प्रहरी ने कहा – ‘नहा लो भाई, आज तुम्हें जाना है।’

कैदी मुस्कुराया। उसकी लाल-लाल आँखों में चॉक के लिए धन्यवाद के भाव झलक रहे थे।

थोड़ी देर बाद मजिस्ट्रेट, जेलर और डॉक्टर भी आ गए और कैदी नं. 371 फाँसी पर लटका दिया गया।

कैदी की मौत के बाद एक गहरा सन्नाटा उस जेल में तैरने लगा। मौत के जलसे में शामिल सभी लोग एक दूसरे से बिना कुछ कहे थके-माँदे लौट रहे थे। जेलर जेल के लंबे गलियारे से होता हुआ गुजर रहा था। वह चाहता तो नहीं था लेकिन खुद को सेल नं. 3 के आगे खड़ा पाया।

जेलर देर तक दीवार में बने चित्र को निहारता रहा। दिवंगत खूनी चित्रकार का यह अंतिम चित्र था। जेलर ने प्रहरी को बुलाकर कहा – ‘आज इस सेल में सफेदी करवा देना।’

‘साहेब, कहें तो सामने वाली दीवार को ऐसे ही रहने दें, बेचारे का यह अंतिम चित्र है।’ प्रहरी ने कहा। जेलर प्रहरी को देखता रहा, फिर वह आगे बढ़ा और उसने चित्र में से चिड़िया को पोंछकर हटा दिया।

प्रहरी कुछ देर जेलर साहब को जाते हुए देखता रहा फिर उसने गर्दन फेरकर चित्र की तरफ देखा।

जहाँ कुछ देर पहले चिड़िया थी वहाँ एक भद्दी घसीट से बना धब्बा दिखाई दे रहा था और भीड़ में खोई वह लड़की, जो कुछ देर पहले उस चिड़िया की परवाज को उत्सुक आँखों से देख रही थी, अब बहुत भयभीत दिखाई दी। कुछ देर बाद उसकी आँखों में नमीं उभर आई। देखते ही देखते उसकी पलकों पर पनीली चमक दिखाई दी फिर दो बूँदे उसकी आँखों से बाहर आई और प्रहरी की विस्फारित आँखों ने उन सजीव आँसुओं को सचमुच दीवार पर लुढ़कते हुए देखा।

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