अंतहीन | रमेश पोखरियाल
अंतहीन | रमेश पोखरियाल

अंतहीन | रमेश पोखरियाल – Antaheen

अंतहीन | रमेश पोखरियाल

चिड़ियों की चहचहाहट से झुमकी की नींद खुली। उठने का समय हो गया था। शरीर का पोर-पोर दुख रहा था। मन हुआ थोड़ी देर और सुस्ता ले, लेकिन हिम्मत न हुई। लड़खड़ाती उठ खड़ी हुई और रसोई में चली गई। पति के खर्राटों की आवाज बगल के कमरे से आ रही थी।

उस आवाज को सुन उसकी घबराहट और बढ़ गई और स्वतः ही चाल तेज हो गई। साथ ही दर्द और अधिक गहरा गया। दर्द से उसका पाला पहली बार पड़ा हो, ऐसा भी नहीं था। शादी से पहले अपने मायके में शराब के नशे में चूर हो पिता ने कई बार अकारण ही उसे धुन डाला था। पिता की हरकतों से परेशान माँ का गुस्सा भी उसी पर उतरता।

चार भाई-बहनों में सबसे बड़ी थी झुमकी। रेलवे लाइन से लगी झुग्गियों में माता-पिता के साथ रहती। पिता मजदूरी करते और जो कमाते शाम को उसे शराब में गँवाकर आते। चार बच्चों को पालने की जिम्मेदारी लगभग माँ की ही होती। चार-पाँच घरों में झाड़ू-बरतन कर बच्चों का पेट भरने लायक तो कमा ही लेती।

लेकिन धीरे-धीरे पिता की शराब पीने की आदत बद से बदतर होती गई। अपनी कमाई तो उड़ा ही देते, माँ की कमाई पर भी नजर रहती। माँ मना करती, पिता को कई गालियाँ देती और फिर भी बेरहमी से पिटतीं। माँ की चीख-पुकार सुन बच्चे सहम जाते। वह भी जोर-जोर से चीख कर माँ के सुर से सुर मिलाने का प्रयास करते।

झुमकी अब पंद्रह वर्ष की हो चुकी थी। उम्र से पहले ही बड़ी होती झुमकी माँ की पीड़ा समझती। छोटे और नासमझ भाई-बहन भी नशे में रुई की तरह न धुने जाएँ इसलिए उन्हें अपनी गोद में छुपाकर सुलाने का प्रयास करती।

स्कूल का मुँह चारों में से किसी ने न देखा। झुमकी छोटी थी तो माँ अपेक्षाकृत कम घरों में काम करती। धीरे-धीरे झुमकी बड़ी होती गई और परिवार भी बढ़ता गया, साथ ही खर्चे भी।

पिता की बुरी आदतों के कारण घर के खर्चे का भार माँ के कंधे पर पड़ा तो भाई-बहनों को सँभालने का बोझ झुमकी के कंधे पर। यूँ तो बस्ती में उन्हीं की तरह के लोग ही रहते लेकिन इन परिस्थितियों में भी कुछ लोग बच्चों को पास के सरकारी स्कूल में भेज पाते। हसरत भरी निगाहों से झुमकी उन्हें स्कूल जाते देखती। काश वह भी पढ़ पाती।

उसकी सहेली ने बताया कि वहाँ पढ़ाई के साथ-साथ खाना भी मिलता है तो झुमकी के मुँह में पानी भर आया। लेकिन अगर वह स्कूल जाती तो भाई-बहनों को कौन सँभालता। वह मन मसोस कर रह गई।

बस्ती के एक कोने पर थी लाला की दुकान और साथ में ही पक्का मकान। बस्ती से निकलने के बाद पहला पक्का मकान था लाला का। बस्ती वाले जरूरत का सामान भी लाला से खरीदते और जरूरत पड़ने पर ब्याज पर उधर भी उसी से लेते।

गरीब लोग थे। जरूरतें भी छोटी ही होती। कभी बच्चा बीमार तो कभी स्वयं। कभी त्यौहार मनाना होता तो कभी जन्म मृत्यु के संस्कार। जो कमाते उससे तो घर का खर्च भी न चलता। ऐसे समय में काम आता लाला। पहले ही महीने का ब्याज काट कर बाकी पैसे उनके हाथ में दे देता।

अनपढ़ मजदूर न तो ब्याज का हिसाब लगाना जानते, न किसी से पूछते। उनके लिए तो लाला भगवान के समान था। वरना कौन देता उन्हें उधर। ये अलग बात थी कि उधर की रकम जब चुकाए न चुकती तो कर्जदार के बीवी-बच्चों को ही लाला की सेवा कर कर्ज उतारना होता। सुबह के झुटपुटे में लोगों ने कई बार लाला के घर से किसी कर्जदार की बीवी या बेटी को निकलते देखा था।

यों तो भरा पूरा परिवार था लाला का। लेकिन चार बेटियों को जनने के बाद लाला की पत्नी कुछ तो शोक से और कुछ बीमारी से ऐसी खाट को लगी कि उठ न सकी। ऊपर से लाला द्वारा बार-बार दिए जाने वाले ताने मन को छलनी कर जाते।

दो बेटियों की तो लाला शादी कर चुका था और वह दोनों अपने-अपने घरों में खुश थी। तीसरी बेटी पंद्रह की और चौथी दस वर्ष की थी। दोनों ही बेटियाँ माँ का ध्यान रखती। लाला तो पत्नी की ओर देखता भी नहीं। अपना कमरा भी उसने पत्नी के कमरे से दूर ही रखा था। लेकिन कमरा दूर होने से लाला की करतूतों का उसे पता न चलता, ऐसा भी नहीं था। जवान बेटियों के घर में होते हुए पति का ये चलन उसकी घुटन बढ़ा जाता।

‘हे भगवान! अब नहीं सहन होता। बुला ले अपने पास।’ आँखों में आँसू भर अशक्त हाथों को ऊपर उठाने का प्रयास कर बार-बार प्रार्थना करती।

और एक दिन ईश्वर ने उसकी प्रार्थना सुन ली। लाला और ललाइन दोनों को मुक्ति मिल गई। ललाइन की आत्मा को शांति मिले इसके लिए लाला ने उसकी तेरहवीं धूमधाम से की। गरीबों की क्षुधा शांत करने पर ज्यादा पुण्य मिलेगा, यही सोच लाला ने बस्ती के लोगों को भी तेरहवीं पर न्यौता दिया।

अच्छा खाने के लालच में झुमकी भी पहुँच गई लाला के घर के सामने के मैदान में। लाला और उसके कारिंदे स्वयं पूछ-पूछ कर लोगों को खाना खिला रहे थे।

‘मालकिन सीध स्वर्ग जाएगी लाला।’ गरमागरम हलवा मुँह में डालते हुए रामदीन बोला।?

लाला का सीना गर्व से फूल उठा। इन्हीं गरीबों की बदौलत तो अमीर बना है वह। इन्हीं के कारण आज उसकी इतनी हैसियत है कि घरवाली की तेरहवीं इतने धूम-धम से करवा रहा है। वरना क्या था वह जब गाँव से भागकर शहर आया था?

अकाल पड़ने के कारण घर में अन्न का दाना तक न था। गाँव से नवयुवकों के जत्थे के जत्थे काम की तलाश में शहर की ओर जा रहे थे और इसी एक जत्थे में सोलह वर्षीय सुखराम भी चला आया था। ‘सुखराम’ हाँ यही तो नाम है उसका। अब तो ‘लाला’ सुनने की ऐसी आदत पड़ गई है कि असली नाम याद तक न रहा।

कुछ दिन शहर में ध्क्के खाए। कहीं काम न मिला। कूड़े में पड़ी जूठन से पेट भरा। धीरे-धीरे दिहाड़ी मिलनी शुरू हुई। कुछ पैसे मिलने शुरू हुए तो सुखराम का दिमाग चलने लगा। एक झुग्गी बस्ती में पान के खोखे से शुरू किया गया उसका व्यवसाय अब तरक्की कर चुका था।

उसे खाता कमाता देख माता-पिता ने पास के गाँव की ही एक लड़की से रिश्ता करा दिया और जैसे-जैसे सुखराम का व्यवसाय बढ़ता रहा वैसे-वैसे उसके परिवार में भी उत्तरोत्तर बढ़ोत्तरी होती रही।

झुमकी ने ऐसा स्वादिष्ट खाना पहले कभी नहीं खाया था। बड़े मनोयोग से वह रायते की पत्तल चाट रही थी। रायता तो खत्म हो ही चुका था साथ ही पत्तल पर पड़े उसके निशान भी झुमकी के उदर में समा चुके थे लेकिन उसका मन न भरा। ललचाई द्दॄष्टि से वह लाला के कारिंदों की ओर देख रही थी। कोई इस तरफ आए तो उससे और रायता माँग ले।

यूँ तो झुमकी की उम्र अभी पंद्रह वर्ष ही थी लेकिन ईश्वर ने कद-काठी कुछ ऐसी तराशी थी कि वह अपनी उम्र में दो तीन वर्ष बड़ी ही लगती। कुपोषण की शिकार इस बस्ती में जहाँ मरियल से बच्चे अपनी उम्र से कम ही नजर आते वहीं झुमकी के शरीर की गठन व चेहरे की रौनक सबके मन में ईर्ष्या ही पैदा करती।

लाला की दृष्टि भी उसकी ओर गई तो एक बारगी ठिठक कर रह गई। ‘पहले तो कभी नहीं देखा इसे। किस परिवार की होगी?’ मन ही मन उसने सोचा और जब मन की उत्कंठा न दबा पाया तो धीरे-धीरे चल उसके पास आ खड़ा हो गया।

‘कुछ और चाहिए क्या?’

‘नहीं… नहीं…।’ आवाज सुन झुमकी चौंकी।

पत्तल उसके हाथ से छूट गया। कुछ पल तक तो वह जमीन पर गिरे उस पत्तल को ही निहारती रही। शायद देख रही थी कि उसमें कुछ छूटा तो नहीं रह गया।

‘कहाँ रहती हो?’ लाला का अगला प्रश्न।

‘यहीं बस्ती में।’

‘बस्ती में? पहले तो कभी नहीं देखा। उसकी नजरों से बच कैसे गई। लाला ने मन ही मन सोचा।

‘किसकी बेटी हो? पिताजी का नाम क्या है?’

‘लुभाया राम।’

‘लुभाया राम! नाम सुन लाला चौंका।’

उस बेवड़े के घर में इतनी सुंदर बेटी! शराब के नशे में चूर इसके बाप ने कभी ध्यान भी न दिया होगा बच्चों पर। कितनी बार तो दोनों मियाँ-बीवी उसकी दुकान पर कर्जा लेने आए हैं। घर का सामान भी महीने की उधारी में चलता ही रहता है। लुभाया जितना कामचोर और व्यसनी है उसकी घरवाली उतनी ही कर्मठ और दृढ़चरित्र। दुकान पर आती है, लेकिन लाला की फूहड़ बातों का जवाब भी दृढ़ता के साथ देना जानती है।

अपनी सोच से बाहर निकलते ही लाला ने एधर-उधर देखा लेकिन झुमकी कहीं नजर नहीं आई।

ललाइन की तेरहवीं संपन्न हुई। सभी लोगों ने लाला की दरियादिली की दिल खोल कर तारीफ की। ललाइन की आत्मा को तो शायद इस भोज से शांति मिल गई थी लेकिन लाला के मन की अशांति बढ़ गई। सारे दिन की भागदौड़ और थकान के बावजूद उसे नींद न आई। पिछले आठ-दस सालों से बिस्तर पर पड़ी पत्नी यों तो उसकी जिंदगी में ना के समान थी पर अब तो उसका अस्तित्व ही न रहा।

कल के दिन दोनों बेटियों का भी विवाह हो जाएगा तो वह तो अकेला ही रह जाएगा।

उसका तो आगे वंश चलाने वाला भी कोई नहीं। किसके काम आएगी उसकी कमाई?

‘उसे दूसरा विवाह कर लेना चाहिए।’ यही विचार मन में आया। इस विचार के साथ ही रायते का दोना चाटती झुमकी की तस्वीर आँखों में आ झलकी।

‘ये लुभाया राम का कितना कर्जा बाकी है?’ अगले ही दिन उसने अपने कारिंदे से उसका हिसाब निकलवा डाला।

‘ये तो बाल-बाल तक कर्जे में डूबा है लालाजी।’

‘आज शाम को ही बुलवा लो उसे और उसकी बीवी को।’ कहते हुए लाला की आँखों में चमक उभर आई।

कारिंदा समझ गया लाला की नजर कहीं और है वरना लुभाया की बीवी को नहीं बुलाता। लेकिन फिर भी ये न समझ पाया कि लाला की नजर कहाँ तक गई और उसके मन में क्या है।

अनजाने भय से थरथराती लुभाया की पत्नी उसे लेकर लाला के पास चली आई। लुभाया तो तब तक नशे में चूर हो चुका था।

‘तुम्हें और कर्जा नहीं मिल सकता अब। पिछले कुछ महीनों से तो तुमने ब्याज भी पूरा नहीं चुकाया है। बताओ क्या है अब तुम्हारे पास मुझे देने के लिए?’ लाला ने बही में नजरें गड़ाते हुए पूछा।

लुभाया से तो अपना ही भार सहन न हो रहा था वो बोलता क्या लेकिन उसकी बीवी ने हाथ जोड़ दिए।

‘माई बाप, खर्चा ज्यादा हो रहा है पिछले कई महीनों से। कभी बच्चा बीमार तो कभी मैं।’

‘बीमार है तो क्या दारू का खर्चा कम किया, देखो अभी भी कैसा लुढ़क रहा है। पीने को तो पैसे हैं और उधर वापस करने को नहीं। मैंने कह दिया अब नहीं मिलेगा कर्जा।’ और लाला बही ले उठ खड़ा हो गया।

‘लाला दया करो। बच्चे भूखे मर जाएँगे। लाला मैं बेगारी कर लूँगी, पर ऐसा मत करो।’ लुभाया की बीवी रो पड़ी।

‘अब रोकर क्या होगा? पैसा देने की तो होश होनी चाहिए थी तुम्हें।’ लाला अंदर जाने लगा।

‘कुछ तो उपाय होगा लाला।’

और ये सुन लाला ठिठककर रुक गया। उपाय ही तो सुझाना चाहता था वह लुभाया और उसकी बीवी को। लेकिन उसमें भी जल्दबाजी न करना चाहता था। उसने लुभाया को अगले दिन बुला लिया।

जानबूझ कर उसने लुभाया को अकेले बुलाया था। जानता था उसे समझाना, लालच देना आसान होगा।

अगले दिन लाला को मिलकर लुभाया घर लौटा तो बहुत खुश था। कुछ तो खुशी और कुछ नशा। उसके पैर जमीन पर ही न पड़ते थे।

‘क्या कहा लाला ने?’ बीवी ने आते ही पूछा।

‘अरे मत पूछो क्या कहा? दिल खुश कर दिया। मेरी बेटी वहाँ राज करेगी और मेरा सारा कर्जा माफ।’ लड़खड़ाती जुबान से इतना ही कह पाया जो उसकी पत्नी की समझ में नहीं आया।

रातभर लुभाया नशे में रहा। अगली सुबह होश आया तो लाला का प्रस्ताव पत्नी को बता दिया।

‘झुमकी से शादी बनाना चाहता है वह और बदले में सारा कर्जा माफ।’

‘लेकिन झुमकी कैसे? वह तो पंद्रह बरस की है अभी। लाला की तो बेटियाँ भी…’ लुभाया की पत्नी को ये प्रस्ताव समझ में न आया।

‘तो क्या हुआ। शादी तो करनी ही है हमने उसकी। इससे अच्छा वर कहाँ ढूँढ़ पाएँगे?’ लुभाया लाला को हाँ बोल चुका था।

बहुत सारी बहस-मशविरे के बाद आखिर झुमकी ही लुभाया का कर्ज उतारने का साधन बनी। एक मंदिर में लाला के साथ सात फेरे ले वह ललाइन बन गई। साथ ही लुभाया के भी दिन फिर गए।

झुमकी ललाइन तो बन गई थी लेकिन थी तो छोटी ही। अपने घर में तो खुला वातावरण था लेकिन यहाँ था बंधन। ऊपर से लाला का शक्की स्वभाव। घर के बाहर वह कदम भी रखती तो लाला आँखों ही आँखों में निगल जाता उसे।

लाला की दोनों बेटियाँ भी उसी की हम उम्र थीं। उनको खेलते-कूदते देख झुमकी का भी मन करता कि वो भी उनके साथ खेले लेकिन कैसे? लाला से वह डरती भी कम न थी। लाला का परिपक्व और अमानवीय प्यार प्रदर्शन उसके कोमल मन को बार-बार आहत कर जाता।

एक दिन लाला दुकान का सामान लेने बाजार गया था तो झुमकी को मौका मिल ही गया। दोनों बेटियों के साथ वह बाहर आँगन में खेलने लगी। उसकी बुरी किस्मत कि लाला उस दिन जल्दी आ गया। वहीं से चोटी पकड़ कर उसे अंदर ले गया और मारना आरंभ किया। उस दिन पहली बार लाला का हाथ झुमकी पर उठा था।

और फिर तो ये आए दिन की बातें हो गई। अब तो वह जरा सा जोर से भी हँस देती तो भी लाला के तन बदन में आग लग जाती।

अब कल ही की बात लो। लाला की बड़ी बेटी अपने पति और बच्चों के साथ आई थी। उसके पति बहुत ही मजाकिया स्वभाव के हैं। यों तो झुमकी से उम्र में काफी बड़े थे लेकिन उनसे हँसी मजाक करना लाला को अखर गया। और उनके जाते ही लाला छड़ी लेकर झुमकी पर पिल पड़ा। मारता जाता और साथ में गालियाँ सुनाता जाता।

‘बहुत जवानी चढ़ी है तुझे। जब देखो खी-खी। पराये मर्द से मजाक करने में शर्म नहीं आती तुझे?’ और ऐसी ही न जाने कितनी बातें। लाला मारते-मारते थक गया लेकिन झुमकी के मुँह से चूँ तक न निकली। थक हार कर लाला ने छड़ी एक ओर फेंक दी और अब अश्लील गालियाँ देने लगा। झुमकी ने कुछ सुना कुछ नहीं। जो सुना उसे भी सुनकर अनसुना कर दिया।

झुमकी अब धीरे-धीरे लाला की बातों को अनुसुना करना सीखने लगी थी। अब वह जानबूझ कर वही काम करती जो लाला को बुरा लगता। लेकिन कभी-कभी वह अचानक ही गुमसुम हो जाती। ऐसे कि जैसे उसका सबकुछ लुट गया हो। कभी अचानक ही जोर-जोर से हँसने लगती तो कभी जोर-जोर से रोने लगती। उसकी इस हरकत पर लाला उसे और मारता।

झुमकी को जब पता चला कि वह माँ बनने वाली है तब तक चार माह बीत चुके थे। पाँच महीने और भी बुरे गुजरे। बचपन खो चुकी झुमकी जिसे अपने पिता से भी अधिक उम्र के व्यक्ति से विवाह करना पड़ा था, अपना संतुलन खो रही थी। इसी अवस्था में झुमकी ने एक पुत्र को जन्म दिया। लाला खुश था। आखिर झुमकी ने उसे वारिस दे दिया था, लेकिन झुमकी! वह तो समझ भी नहीं पा रही थी कि उसे हुआ क्या है। अभी उम्र ही क्या थी उसकी? सत्रह वर्ष भी पूरी न थी।

धीरे-धीरे झुमकी की ये स्थिति हो गई कि वह बच्चे को भी अपना न समझती। लाला की बेटियाँ ही उसे सँभालती। लाला चिंतित हो उठा। वारिस तो उसे मिल गया था लेकिन उसे पालेगा कौन? बेटियाँ तो कल विवाह होकर अपने-अपने घर चली जाएँगी। ज्यादा से ज्यादा चार-पाँच वर्ष ही तो वो साथ रहेंगी।

अगर झुमकी की यही स्थिति रही तो लाला फिर हो जाएगा अकेला। पागल पत्नी, चार-पाँच साल का बेटा और अकेला लाला। ये सोच कर ही लाला के होश उड़ गए।

और इसी घबराहट में लाला आजकल फिर ऐसे कर्जदार की तलाश में है जहाँ कोई बेटी हो और लाला बाप-बेटी दोनों का उद्धार कर सके। झुमकी की हालत दिल प्रतिदिन बिगड़ती जा रही है और उसी गति से लुभाया पर कर्ज का बोझ भी।

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