अन्न-जल | हरियश राय
अन्न-जल | हरियश राय

अन्न-जल | हरियश राय – Ann – jal

अन्न-जल | हरियश राय

यदि भयानक तूफान से ऐसा होता, तो भी हरि सिंह चौधरी संतोष कर लेते, यदि भूकंप में उनके खेतों की जमीन धँस जाती, तब भी वे उफ तक न करते और खुदा का खौफ मानकर सब्र कर लेते, यदि सूखे से जमीन दरक जाती तो भी अपने मन को किसी न किसी तरह मना लेते। पर ऐसा हुआ नहीं। हुआ कुछ और ही। सारा जीवन खेतों में बीता, गर्मी, सर्दी, बारिश हर मौसम में खेतों को सींचा, अपना पसीना बहाया, जो मन में आया, वही किया। कभी किसी की बात नहीं मानी, पर अब जिंदगी के इस पड़ाव में अपनों की ही बातों में आकर वह यह कदम उठा बैठे। हालाँकि उनकी पत्नी ने भी शुरू-शुरू में मना किया था पर पता नहीं क्‍यों, वह भी बेटों के झाँसे में आ गई। अब चाहे हरि सिंह चौधरी जितना भी रोएँ, आँसुओं के चाहे जितने दरिया बहा दें, बेटों को चाहे जितना भी दोष दें, पर सच तो यह है कि सहमति तो उनकी अपनी भी थी। लालच तो उन्हें भी आ ही गया था, सपने तो उन्‍होंने भी देखने शुरू कर दिए थे, हाँ, यदि अपने बेटों और बहुओं को जोर से डाँट देते, अड़ जाते अपनी बात पर, जैसाकि वे हमेशा से अड़ते आए थे, तब ऐसा नहीं होता। तब वे मजे से अपने खेतों में अपनी जिंदगी के दिन गुजार रहे होते। मजे से धान काट रहे होते, मजे से खेतों में सब्जियाँ बोते, मजे से गायों, भैंसों का दूध निकालते, खुद भी पीते और मंडी में भी बेचते और जीवन के आखिरी दिनों में घर के खुले आँगन में नीम के पेड़ के नीचे बैठकर सुबह शाम हुक्‍का गुड़गुडा रहे होते।

पर ऐसा हो नहीं सका। हुआ कुछ और ही।

हरि सिंह चौधरी भोर में ही अपने घर से निकलकर नाथुपुर इलाके के चारों ओर रोज चक्कर काटते और थक कर बाग में जाकर बैठ जाते। आज नाथुपुर के इलाके में चक्कर काटते समय उनके दिमाग में ढेर सारे ख्याल हिलोरे ले रहें थे। एक ख्याल जाता तो दूसरा आता। कुछ साल पहले तक चारों ओर खेत ही खेत थे। अपने खेतों में वे धान बोया करते थे। अब खेत गायब हो गए थे। उनकी जगह बड़ी बड़ी कोठियाँ बन गई थीं। बड़ी-बड़ी सड़कें, स्‍कूल, बाजार, अस्पताल फ्लाई ओवर, पता नहीं क्या बन गया था यहाँ। इस इलाके को देखकर हैरान रह जाते ‘क्या था यह इलाका, क्या हो गया। कैसे चारों तरफ ऊँची ऊँची इमारतें बन गईं और देखते ही देखते जिन पगडंडियों पर कभी गायों का झुंड धूल उड़ाता चलता था, वहाँ सड़कें बन गईं और उन पर लंबी लंबी कारें चलने लगीं। देखते ही देखते गाँव के लड़के कारों को तेज रफ्तार से चलाने लगे। जगह जगह दारू के अड्डे खुल गए।

कल रात उन्होंने एक अजीब सा सपना देखा उन्‍होंने देखा कि उनके खेत में तरह-तरह के साँप डोल रहे हैं। छोटे, बड़े, काले, भूरे। हुंकार भरते। सारे साँप धीरे धीरे रेंगते उनके सीने पर चढ़ गए और उनकी छाती पर फन फैलाकर उनकी और देख रहे हैं, उन्‍होंने तकिए को छाती से हटाना चाहा तो नींद एकदम खुल गई। एक दम घबरा गए। पास में सो रहीं पत्नी को उठाया

‘क्या बात से इत्‍ती रात तबियत तो ठीक है।’पत्नी ने उनकी घबराहट देखकर पूछा

‘हाँ तबियत तो ठीक है पण।’कहते-कहते वे थोड़ा रुक गए।

‘पण सू…’पत्नी ने पूछा

‘एक सपणा देखा मैंने, डरावणा सा।’उनका डर अभी भी बरकरार था

‘क्या देख लिया…’पत्नी ने पूछा

उन्‍होंने पत्नी को अपना सपना बता दिया। पत्नी ने कहा, ‘बावरा हो गया है कै। ईब खेतकियाँ से। तने तो पैल्‍ले ही बेच दिए। ईब साँप कहाँ से आ लिए। सो जा और मणे भी सोण दे।’कहकर पत्नी फिर से सो गई

पर हरि सिंह सो न सके। भोर होते ही लाठी उठाकर घर से बाहर आ गए।

नवंबर का महीना था, पर गर्मी अभी भी थी। हवाओं में ठंडक बिलकुल भी न थी। याद करता है हरि सिंह अपने बचपन को, जब नवंबर महीने में कड़ाके की ठंड पड़ती थी। रजाइयाँ निकल आती थी नवंबर में ही। धूप में बैठते थे सारा दिन और शाम होते ही घुस जाते थे रजाइयों में। पता नहीं वे दिन कहाँ चले गए। हरि सिंह ने देखा कि सामने से एक औरत आ रहीं है। नीले रंग का घाघरा और जेब वाली सफेद रंग की कुर्ती पहने, सर पे ओढ़नी, हाथ और पैरों में दो बड़े-बड़े कड़े। चालीस पैंतालीस साल की उम्र रही होगी उसकी।

‘राम-राम काका’उस औरत ने कहा।

‘राम-राम बेटी राम-राम।’आज सबेरे सबेरे कित्‍त जा रई से।’हरि सिंह ने पूछा।

‘भैंस ढूँढ़ रही हू, पता नहीं कटे चली गई, दूध दोन्‍ने का टैम हो गया से।’उसने कहा।

उसे याद आया कि कुछ साल पहले तक वह भी भैंस चराता था इस इलाके में। पर अब सब खत्म हो गया।

‘देख बाग के परली तरफ गई होग्‍गी। उधर खुली जगह से।’हरि सिंह ने कहा।

‘हाँ, उधर ही जा रही सूँ काका।’उसने कहा।

हरि सिंह पहचानता था इस औरत को। गाँव के किसान रणवीर सिंह की बहू थी। अक्‍सर सुबह-सुबह उसे मिल जाती थी। अपनी भैंसों को ढूँढ़ती।

हरि सिंह चौधरी धीरे धीरे लाठी टेकते बाग के अंदर आ गए। बाग के अंदर आकर उन्‍होंने अपने आप को तरोताजा महसूस किया। यह जवानी का अवशेष ही था जो इस उम्र में भी उनसे रोज सवेरे अपने इलाके की सैर करवाता। वे बाग के पेड़ पौधों को टुकर टुकर देखते हुए धीरे धीरे चलकर एक बैंच पर आकर बैठ गए। अपनी लाठी को उन्‍होंने बैंच के एक कोने में रख दिया और अपने अँगोछे से माथे पर आई पसीने की बूँदों को पोंछने लगे।

करीब सत्तर साल की उम्र रही होगी हरि सिंह चौधरी की। सफेद धोती, सफेद कुर्ता पहने सर पर पगड़ी बांधे, पाँवों में काले मटमैले जूते पहने। हाथ में लाठी लेकर वह रोज आस पास के पाँच-छ किलोमीटर के इलाके का चक्कर लगाते और जब थक जाते तो इस बाग में आकर बैठ जाते। यह उनका रोज का सिलसिला था। रोज पक्षियों की चहचहाहट शुरू होने से पहले ही वे इस बाग में आ जाया करते। बाग में बैठकर उगते हुए सूरज की लाल रोशनी को देखना उन्हें बहुत अच्‍छा लगता। सुबह का उजाला होना अभी बाकी था। हरि सिंह चौधरी सुबह सुबह बाग में बैठ कर पेड़ों के ऊपर के आकाश को किसी दार्शनिक की तरह देख रहे थे। गोया तलाश कर रहें हो कि अभी भी इस इलाके में कुछ बचा है या सब खत्म हो गया।

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बड़ी साधारण सी जिंदगी रही थी चौधरी हरि सिंह की। बाप-दादाओं की जमीन पर खेती करते, साल में तीन फसले काटते और आया नगर की मंडी में जाकर बेच देते। गाय, भैंसों के रंभाने की आवाज़े घरों में गूँजती रहती, दूध दही की कोई कमी नहीं थी। बाप ने जैसा कहा, वैसा किया। बाप ने कहा धान बो दो, तो धान बो दिया। बाप ने कहा बाजरा बो दो, तो बाजरा बो दिया। बाप ने कहा फसल की कमाई से भैंस खरीद लो तो भैंस खरीद ली। कभी बाप के आगे चूँ तक नहीं की। देखते-देखते शादी हुई, दो लड़के हुए और देखते ही देखते लड़के बड़े हो गए, उनकी शादियाँ हो गई, पहले खेत में काम करते थे उसके लड़के। पर धीरे-धीरे खेती से उनका मन हटने लगा। हरि सिंह के सामने जोर-जोर से बोलने लगे, ज्‍यों ज्‍यों उम्र बढ़ी गई त्यों-त्यों हरि सिंह चौधरी अपने ही घर में अकेले पड़ते गए। फिर पता नहीं क्‍या हुआ इस इलाके में एक तूफान सा आया। विलायती कंपनियों का तूफान। लोग खेत जमीनें सब बेचने लगे। लड़के ने उसे भी कहा खेत बेचने के लिए पर हरि सिंह चौधरी नहीं माने। लडके उस पर ताना मारने लगे। कहते – खेत बेचता क्‍यों नहीं, क्‍यों छाती पर रख कर बैठेगा। क्या सारे खेत अपने साथ लेकर जाएगा ऊपर, ऊपर वाला भी कहेगा कि क्‍यों भाई, इन खेतों को तो नीचे छोड़ आता।’। उनकी बातें सुनकर हरि सिंह चौधरी को लगने लगा था कि यह लड़के उनके हाथ से निकल गए, उसके लड़के उस तरह उनकी बात नहीं मानेंगे जिस तरह वे अपने बाप की मानते हैं।

“राम-राम चौधरी…। एक चालीस साल के आदमी ने उन्हें बाग में बैठा देख कर कहा।

गंजे सिर वाला यह आदमी बाग में रोज सैर करने आता था। निक्‍कर, टी शर्ट और मोटे मोटे जूते पहनकर वह बाग की सैर किया करता था। रोज राम-राम करता। हरि सिंह जानता था उसे। गाँव के लंबरदार रणवीर सिंह का छोकरा है सतपाल। अपने बाप की सारी जमीनें बेच कर प्रापर्टी डीलर बन बैठा था। रणवीर को मरे हुए काफी वक्त हो गया।

‘राम-राम भाई, राम-राम।’हरि सिंह चौधरी ने अनमने भाव से जवाब दिया।

‘क्या बात है ताऊ, आज बाग का चक्कर नहीं लगाणा।’सतपाल ने कहा

‘मैंने तो लगा लिए कई चक्कर। तू लगा लें’हरि सिंह ने कहा, ‘तो फिर ईब माणा सा क्‍यों है’सतपाल ने फिर पूछा।

अब हरि सिंह इस छोकरे को कैसे बता दे कि वह क्‍यों उदास है? क्‍यों लाख कोशिश करने के बाद भी उसकी उदासी दूर नहीं हो रही है?

‘नहीं, कोई बात न से।’हरि सिंह की उदासी बरकरार थी

‘कुछ बात तो जरूर से जो इतणा माणा सा से।’सतपाल ने कहा।

सतपाल ने सुबह-सुबह उसके चेहरे पर छाई उदासी को पहचान लिया था।

‘नहीं, ठीक सूँ भाई।’हरि सिंह ने खिन्न होकर कहा।

यह कहकर वह बैंच से उठ गए और धीरे-धीरे चलने लगे। वह सतपाल से बचना चाहते थे। पता नहीं क्‍यों यह छोकरा उन्हें कभी पसंद नहीं आया। अपने बाप के मरने के बाद रही सही जमीनें भी इसने बचे दी थी और अब जमीनों की दलाली करता है।

उन्हें चलता देख वह सतपाल भी अपनी तोंद खुजाता हुआ आगे निकल गया।

दरअसल सतपाल के बार बार टोकने से बचने के लिए वे चलने लगे। पर उनकी चलने की कोई इच्छा नहीं थी। शरीर एक दम थक चुका था। सत्तर साल पुरानी टाँगें आखिर कब तक चले और कितना चले। शरीर से ज्यादा मन थक चुका था। उनके जी में आता कि वह कहीं न जाएँ। सारा दिन इसी बाग में बैठे रहें। पर ऐसा हो नही सकता था। कुछ कदम चले ही थे कि आगे उन्हें कुछ बैंचे दिखाई दीं। वे वहाँ जाकर बैठ गए।

जब वे बाग में आए थे उस समय इक्का दुक्का लोग ही थे जो तेज तेज चल रहे थे। उस समय बाग में चिड़ियों की चहचहाहट गूँज रही था। अँधेरा जाने वाला था और सूरज की लाल रोशनी पेड़ों के पीछे से उन्हें दिखाई दे रही थी। पर अब बाग में काफी लोग आ गए थे। अपने में मशगूल। बाग में आते ही तेज-तेज चलते, कुछ दौड़ने लगते, कुछ एक्‍सरसाइज वगैरह करते। हरि सिंह चौधरी इन सबको देखते रहते।

कुछ ही देर में हरि सिंह ने देखा कि एक अधेड़़ सा आदमी उनके सामने की बैंच पर आकर बैठ गया। उसने सफेद पैंट और हरे रंग की टी शर्ट पहनी हुई थी। भारी शरीर था। पेट बाहर की ओर आ गया था। सर और मूँछों के बाल सफेद हो गए थे। लंबा कद, पाँव में नीले रंग के जूते थे। चेहरे से पसीने की धाराएँ बह रही थी। लगता था काफी तेज तेज चलकर कर आया है। बैंच पर बैठते ही रूमाल से चेहरे का पसीना पोंछते हुएहरि सिंह की ओर देखते हुए कहा, “ईब तो चमण हो गया से यो इलाका।’

हरि सिंह ने उसकी तरफ देखा लेकिन चुप रहा। उसकी नजरें बाग के पीछे से आती हुई लालिमा पर थी।

वह आदमी बड़ी देर तक हरि सिंह को देखता रहा। गोया उसे पहचान रहा हो। थोड़ी देर चुप रहने के बाद उसने बाग के चारों तरफ देखते हुए कहा, ‘ईब तो घणें सारे लोग आ लिए, सारी जगै भर ली, पैल्‍ले ढेर सारी जगै खाली सी थी।’

उसके स्वर में उत्साह था।

पर हरि सिंह को उसकी बात में कोई दिलचस्पी नहीं थी। वह गुमसुम होकर बैठे रहे।

उस आदमी ने फिर हरि सिंह की और देखा। उसे हरि सिंह का चेहरा कुछ पहचाना हुआ सा लगा। बड़ी देर तक वह हरि सिंह को देखता रहा गोया कुछ याद करने की कोशिश कर रहा हो फिर उसने पूछ लिया, “चौधरी हरि सिंह सौ…?’

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‘हाँ हरि सिंह ही सूँ।’हरि सिंह ने उसकी ओर देखते हुए कहा।

‘ते नाथुपुर सै।’उस आदमी ने फिर पूछा।

हरि सिंह को हैरानी हुई कि यह कौन आदमी है जो उसका नाम जानता है और जिसे उसके गाँव का भी पता है।

हाँ नाथुपुर का ही सूँ भाई… आप कौन’कहते कहते हरि सिंह उसे पहचानने की कोशिश कर रहा था लेकिन पहचान नहीं पाया।

‘के ताऊ कुछ साल पैल्‍ले बैंक गया था लोण वास्‍ते।’उस आदमी ने पूछा।

‘लोण…।’हरि सिंह ने कुछ याद करते हुए कहा।

हाँ, हाँ, लोण। घर को पक्‍कों कराणे वास्‍ते।’उस आदमी ने कुछ याद करते हुए बताया।

‘हाँ गया तो था, बौत पैल्‍ले गया था लड़कों के साथ। काफी पुराणी बात है’हरि सिंह ने कुछ याद करते हुए धीरे से जवाब दिया।

‘तभी मैं सोच रहा सूँ कि तने कित्‍त देख्‍या। मैं बैंक में था वा समय। मैंनेजर।’उसने कहा।

‘अच्‍छा…।’हरि सिंह ने अनमयस्‍कता से कहा।

‘तेजबीर नाम सें मेरा।’उस आदमी ने अपना नाम बताया।

‘अच्‍छा,’हरि सिंह की आवाज में फिर भी कोई उत्साह नहीं आया।

‘आप पहचान न पाए मुझे, मैंने लोण दिया था आपको, घर पक्का कराने के लिए।’

अच्‍छा…

हरि सिंह ने अपनी स्मृति पर बहुत जोर डाला लेकिन तेजबीर को पहचान न सका। हाँ इतना उन्हें जरूर याद है कि उसके लड़कों ने बैंक से कुछ लोन जरूर लिया था।

आकाश की लालिमा पूरी तरह खत्म हो चुकी थी। बाग में पक्षियों ने चहचहाना भी बंद कर दिया था। पर सुबह की हवा में भी ठंडक नहीं थी।

“घर को पक्का करवाना था आपके लड़कों ने।’तेजबीर ने हरि सिंह को याद दिलाया।

हरि सिंह उसकी बात सुनकर और गमगीन सा हो गया। गोया किसी ने गोबर मुँह पर मल दिया हो

बाग में काफी लोग आ गए थे। हरि सिंह ने देखा दो आदमी आए और उनके सामने वाली बैंच पर आकर बैठ गए। उन दोनो ने पैंट और टी शर्ट पहन रखी थी। पाँव में मोटे मोटे जूते उनमें से एक आदमी लँगड़ा कर चल रहा था। वे शायद इस गाँव के नहीं थे। बाहर के लोग लग रहे थे। जब से इस इलाके में कोठियाँ बनी है, तब से बहुत सारे इस तरह के लोग इस इलाके में रहने के लिए आ गए थे। उन दोनो को इस तरह सामने की बैंच पर बैठते देख हरि सिंह और तेजबीर चुप हो गए।

उनमें से एक ने बैठते ही कहा। “कल मैक्‍स अस्पताल गया था डॉक्टर को दिखाने…”

‘क्‍यों, क्या हो गया।’दूसरे ने पूछा।

“क्या बताएँ क्या हो गया, कई दिनों से पैर की हड्डी में दर्द हो रहा था। कल डाक्टर ने देख कर बताया कि एड़ी की हड्डी बड़ी हो गई। उससे ही चलने में तकलीफ होती है।’उसने अपना दर्द बयाँ किया।

‘फिर…’दूसरे ने पूछा।

‘फिर क्या… डाक्टर ने कहा कि बाजार में खास तरह के जूते आते है वह पहन लो। पता किया तो वह जूते बीस हजार के है। अब बताओ, बीस-बीस हजार के जूते मिलने लगे है बाजार में।’उसने बताया।

‘तो खरीद लिए…’

‘न, नहीं खरीदे एक तो पहले डाक्‍टरों ने टेस्‍ट करवा कर पंद्रह हजार ठग लिए और अब कहते है बीस हजार के जूते खरीदो।’उसने कहा

उस आदमी के चेहरे पर अस्पताल डाक्‍टरों के प्रति गुस्सा था। अजीब सा गुस्सा।

‘कुछ नहीं है भाई साहब आप सिर्फ अरंडी के तेल की मालिश किया करो, दर्द अपने आप ठीक हो जाएगा।’तेजबीर ने उनकी बात सुन कर कहा।

‘हाँ मैं भी यही सोच रहा हूँ। मुझे पहले भी किसी ने कहा है। अरंडी के तेल की मालिश करने से हड्डी का दर्द ठीक हो जाता है।”उस आदमी ने कहा

इन डाक्‍टरों के चक्करों में तो न ही फँसो।

उस आदमी के साथ आए दूसरे आदमी ने कहा।

‘अब बताओ कल मेरा छोकरा सत्तर हजार का मोबाइल फोन लेकर आया है। कहने लगा स्‍मार्ट फोन है।’उस आदमी ने हैरानी से कहा गोया उसके सामने कोई विराट दानव आ गया हो।

‘अब सत्‍तर सत्‍तर हजार के फोन आने लगे।”

‘इन फोन कंपनियों ने तो लूट मचा रखी है। कल मेरे लड़के ने पुरानी होंडा सिटी कार बेच दी। कहने लगा कि यह कार पुरानी हो गई है, ओडी खरीद रहा है उसकी बुकिंग करा दी है’दूसरे ने कहा।

‘अब रोज तो कारों के नए-नए मॉडल आ रहे हैं।’पहले वाले ने कहा।

‘अच्‍छा, मैं चलूँ…। आज दोपहर को दुबई की फ्लाइट लेनी है।’

‘कितने दिन के लिए जा रहा है दुबई।”बैंच से उठते-उठते दूसरे ने पूछा।

‘पाँच-सात दिन तो लग ही जाएँगे। एक ने कहा।

वे दोनो उठकर चले गए।

हरि सिंह चौधरी उन दोनों की बात बड़े ध्यान से सुन रहा था। ये लोग सबेरे-सबेरे खरीदने और बेचने की बाते क्‍यों कर रहे है। क्या और कोई बात नहीं है इनके पास करने के लिए। जब वे दोनो वहाँ से चले गए तो हरि सिंह ने तेजबीर की और ध्यान से देखा और पूछा, ‘हाँ मैंनेजर साब क्या कह रहें थे।

‘मैं तो कुछ नहीं कह रहा था। यही पूछ रहा था कि आपका हो गया घर पक्का।’तेजबीर ने कहा।

‘कुछ पक्का न हुआ। सब बेच दिया, लड़कों ने। सब स्वाहा हो गया।’हरि सिंह ने रुआँसे अंदाज में कहा।

‘बैंक का लोन तो चुका दिया होगा।’तेजबीर ने पूछा।

‘आपको न पता।’हरि सिंह चौधरी ने झल्लाकर कहा।

‘मेरे को पता न है। मैं तो बदली होकर चला गया था।’

‘लड़कों ने सब तबाह कर दिया। हरि सिंह की मायूसी बरकरार थी।

हरि सिंह ने देखा कि सामने से आ रहे सतपाल ने उसकी यह बात सुन ली। जब तक हरि सिंह कुछ और कहता तब तक सतपाल उनके पास पहुँच गया था।

‘क्या हुआ ताऊ? क्‍यों लड़कों को सबेरे सबेरे कोस रहा है।

सतपाल काफी देर से बाग के चक्कर काट रहा था। पसीना पसीना हो गया था। थोड़ी देर आराम करने के लिए वह हरि सिंह के पास वाली बैंच पर आकर बैठ गया।

‘ईब कोसाँ न तो क्या करूँ। सब ठिकाणें लगा दिया।’कहकर हरि सिंह रुआँसा सा हो गया।

तेजबीर समझ गया कि हरि सिंह क्या कहना चाह रहा है। बोला, ‘सबके घर में यो ही बात है।’

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न सबके घर का तो पता नहीं पर नाथुपर में जरूर है। न कंपनियों के लोग म्‍हारें गाँव आत्‍ते न हमारे खेत बिकते।’हरि सिंह ने कहा।

‘अब कं‍पनियों के माथे क्‍यों ठीकरा फोड़ रया है ताऊ। कंपनियों ने तो आना ही था। देख चारों तरफ। बड़ी-बड़ी बिल्डिगें, इन कंपनियों वालों ने ही तो बनाई है। तीस साल पहले जंगल था जंगल। सियार बोलते रहते थे, खेतों में। चीते गाय, बकरियों को खा जाते थे। अब बड़े बड़े माल बन गए, फाइव स्‍टार होटल खुल गए। गुड़गाँव के किसान खूब मालामाल हो गए। तुझे तो यह सब पता ही है ताऊ तू तो पुराणा आदमी है’सतपाल ने उल्लास से कहा

उसकी बात सुनकर हरि सिंह चौधरी का मन और बैठ गया। सोचने लगा कैसा है यह लड़का जो बडी बड़ी इमारतें और मॉल बनने से खुश है, खेती की जमीन खत्म हो गई इसका इसे कोई मलाल नहीं। खेत ही न रहेंगे तो कहाँ से आएगा अन्न‍जल।

‘वो सब मुझे पता है। पर हमारे खेत तो खत्म हो गए जो अन्‍न-जल देते थे।’हरि सिंह ने कहा

‘ताऊ, उसकी फिक्र क्‍यों करता है। यह तो देख इलाके में कितनी रौनक हो गई। गाँव के लोग अमीर हो गए। पूरी दुनिया में नाम रोशन हो गया गुड़गाँव का। यह कम है क्या?’अब यह कंपनियाँ अन्‍न-जल दे रही है सतपाल के एकएक शब्द में उल्लास टपक रहा था।

‘पर म्‍हारे खेत तो चले गए, गाय भैंस तो बिक गए।’हरि सिंह ने थोड़ा आवेश में कहा

‘पर वा तो तेरी मर्जी से बिके है ताऊ। मत बेचता खेत, किसने कहा था।’सतपाल ने तर्क करते हुए कहा।

‘लड़कों ने ही कहा था बेचने के लिए। मैं तो मना कर रहा था। तेरी ताई भी मना किया था, पर लड़के मान्‍ने को न।’हरि सिंह की आवाज में क्षोभ था।

‘तो तू मना कर देता।’सतपाल ने प्रतिवाद किया।

‘मना तो मैंने बहोत किया था पर मेरी एक न सुणी। कहण लागे घणा पैसा मिल रहा है।’हरि सिंह ने अपने लड़कों के प्रति तिरस्कार की भावना से कहा।

उन्हें याद आया कि उनकी पत्नी ने पहले कहा था, ‘खेत बेचना कोई अच्छी बात नहीं है। पुरखों से अन्न-जल देती आ रही है धरती माँ। आगे भी देती रहेगी।’उसने भी अपने दोनों लड़कों को बहुत समझाने की कोशिश कीपर दोनों में से एक भी नहीं माना। बड़ी बहस हुई थी लड़कों में और हरि सिंह चौधरी में। आखिरकार हरि सिंह को ही उनकी बात माननी पड़ी। खेत बेचकर दुकानें खरीद लीं। एक ने हार्डवेयर की दुकान खोल ली। दूसरे ने गैस्‍ट हाउस बना दिया

‘यह तो पूरे गुड़गाँव की कहानी है। अच्‍छा ताऊ राम-राम मैं तो चलूँ।’

कहकर सतपाल उठ खड़ा हुआ और तेज तेज कदमों से चलता हुआ बाग के बाहर चला गया। उसे जाने की जल्दी थी उसके जाने के बाद तेजबीर ने हरि सिंह ने पूछा, ”खेत बेचने से पैसे तो घणें मिले होंगे?’

‘हाँ मिले तो घणें थे, पर लड़कों ने सब उड़ा दिए।’हरि सिंह ने कहा।

‘तो तूने रोका नहीं।’तेजबीर ने कहा।

‘मेरी कहाँ मानते हैं। रुपये हाथ में आते ही उड़ने लगे हवा में। कारें ले लीं, लंबी वाली। विलायती कुत्ते पाल लिए। उनके जन्म दिन की पार्टियाँ मनाण लागे, रोज दिल्ली के फाइव स्‍टार होटलों में दारू पीण लागे, गांजा, भाँग पीण लागे, लुगाइयों को भी ले जाण लागे। हवाई जहाज से कभी मुंबई जाते तो कभी गोवा, घूमण वास्‍ते, सब खत्म कर दिया। ईब न पैसा बचा न खेत।’कहते-कहते हरि सिंह चौधरी रुआँसे से हो गए।

‘यह तो अच्‍छा नहीं हुआ।’तेजबीर ने फिर कहा।

‘बहुत बुरा हुआ, न दूसरे देशों की कंपनियाँ आती गुड़गाँव में, न उनके दफ्तर बनते, न कॉलोनियाँ बनती, न खेतों की कीमतें बढ़ती, न छोकरों को खेत बेचने की सूझती। न म्‍हारे खेत बिकते’हरि सिंह चौधरी ने अपने मन की बात उससे कह दी।’

बाग में चारों ओर धूप फैल चुकी थी। इस समय तक सुबह की सैर करने वाले ज्यादातर लोग जा चुके थे। कुछ लोग अभी भी थे जो जोर जोर से हँस रहे थे।

‘ईब के कर रिया है ताऊ।’तेजबीर ने पूछा।

तेजबीर के इस सवाल से हरि सिंह रुआँसा हो गया। वह क्या बताए कि अब वह क्या कर रहा है। यह बताए कि उसके एक लड़के ने अपने घर में जो गेस्‍ट हाउस बना रखा है, उसकी देखभाल करता है या यह बताए कि दूसरे लड़के के हार्डवेयर की दुकान पर जाकर बैठ जाता है। क्या बताए…, इसको।

तेजबीर ने सवालिया निगाहों से हरि सिंह की ओर देखा। हरि सिंह चौधरी कुछ नहीं बोला। उसके चेहरे से लाचारी साफ टपक रही थी।

तेजबीर ने भी महसूस किया कि हरि सिंह चौधरी के पास उसके इस सवाल का कोई जवाब नहीं है।

‘अच्‍छा ताऊ चलूँ मैं।’कहकर तेजबीर उठ गया

‘मैं भी चलूँ।”कहकर हरि सिंह भी उठ खड़ा हुआ।

तेजबीर ने हाथ पकड़कर उसे उठाया। वे दोनों धीरे-धीरे चलते हुए बाग के गेट पर आ गए। गेट से बाहर निकलते वक्त हरि सिंह चौधरी ने एक बार फिर बाग को देखा। बाग के पास की जमीन में लगे मोबाइल‍ की बुलंद टॉवर को देखा। यह टावर उसके ही खेत पर लगा था उसने गहरी साँस छोड़ी फिर पूछा, ‘क्‍यों मैंनेजर साहब मैंने सुणा है कि दो दिन बाद हीरों हौंडा चौक के पास कोई जुलूस निकलने वाला है इन कंपनियों के खिलाफ।’

तेजबीर उसकी बात सुनकर एक पल के लिए सोच में पड़ गया कि हरि सिंह चौधरी क्या कह रहा है।

‘पता नहीं मुझे, तेजबीर ने कहा।

‘कल कोई दो लोग चलते-चलते बाग में बातें कर रहें थे।’हरि सिंह ने कहा।

‘अच्‍छा, पूछ के बताऊँगा। मणे तो पता नहीं’तेजबीर ने कहा।

‘हाँ, किसी से पूछना, पता लगे तो मुझे कल बताणा। मैं भी जुलूस में जाऊँगा। गाँव के अन्न-जल की खातिर ‘हरि सिंह ने कहा

‘हाँ पता लगता है तो बताता हूँ।’कहकर तेजबीर तेज’तेज कदमों से चलता हुआ हरि सिंह से आगे निकल गया

हरि सिंह लाठी टेकता हुआ धीरे धीरे चलने लगा। उसकी आँखों से आँसू झलक रहे थे।

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