आवाज में पड़ गईं दरारें | ममता सिंह – Aavaj Mein Pad Geen Dararen
आवाज में पड़ गईं दरारें | ममता सिंह
सच के पीछे भी एक सच होता है। मन की भीतरी सतह में एक दुनिया होती है। ‘तुम बहता हुआ पानी हो, मैं ठहरी हुई झील …।’
तेज रोशनी की ओर भागते हुए रास्ता गुम हो जाने का खतरा रहता है…’
इतने समय तक ये मैसेज उसने सेव करके रखा इनबॉक्स में, डिलीट नहीं किया… हैरान है सनोबर। मतलब रिश्तों में आँच अभी बाकी है। फिर तो उसे सारी बातें याद होंगी, सारी घटनाएँ, सारे लम्हे… तो फिर उसने अब तक मेरे मैसेज का कभी जवाब क्यों नहीं दिया। कभी फोन नहीं किया। कई बार खोना भी पाना होता है और कई बार पा कर भी खाली होना होता है। जो कुछ वक्त पर हासिल ना हो तो उस हासिल के मायने नहीं होते।
स्टूडियो से बाहर वो मोबाइल हाथ में लिए सोफे पर स्तब्ध बैठी है। टेबल पर रखी कॉफी ठंडी हो गई। हैंगिंग स्पीकर पर उद्घोषणा हुई, ‘यू आर लिसनिंग टू रेडियो सनराइज लंदन’ और एक मशहूर अँग्रेजी गाना बजने लगा। ब्लाइंड हो गई मोबाइल स्क्रीन को कोड डालकर उसने खोला, फिर वही मैसेज देखा।
‘…मैसेज तो शारव का ही है। कहीं फिर कोई खूबसूरत सपना तो नहीं… क्योंकि बीती रात फिर से वापस नहीं आती।’
…अब तक उसकी जिंदगी में सच से ज्यादा खूबसूरत सपने ही रहे हैं। चाहे वो नींद में देखे गए हों या जागती आँखों से ।
उसका दिल धौंकनी की तरह धड़का था उस दिन, वो मायावी मृग छौने-सी दौड़ रही थी कुलाँचें भरती हुई। मन पंछी बन गया था, मन के आँगन में खुशियों की बौछार हुई थी, यूँ जैसे तपती धरती पर पड़ी हो बारिश की बूँदें… इंतजार के पल लंबे हो गए थे। डायरी उठा लिखने बैठी थी कि कलम रुक गई एक ही सफे पर। शब्द खो गए थे ।
चंदन की अगरबत्ती पूरी फिजा में महक उठी थी जब वह मिला था पहली बार -‘कुछ अजनबी से हम कुछ अजनबी से तुम’ …मुबारक बेगम की आवाज में यही गीत पहाड़ी झरने की तरह उसके होंठों से झर रहा था। आसमान से नूर बरसा था और फिर वह एहसास की तरह 24 घंटे उसके साथ रहने लगा था।
जब शारव ऑनलाइन होता वह जैसे मोबाइल की स्क्रीन में तब्दील हो जाता, उसके बेहद करीब।
‘…तसवीर में तुम मधुबाला जैसी लगती हो, सचमुच वैसे ही हो क्या?’
‘वैसे ही से मतलब…’
‘मतलब वैसी ही मासूम सी पुराने ख्यालों वाली…’
…खिल गई थी सनोबर।
‘दूधिया मुस्कान लिए तुम अक्सर ही मेरे ख्वाबों में आती हो जैसे कोई ख्वाबों की शहजादी।’
‘बस-बस रहने दो जाने, डांस सिखाते वक्त न जाने कितनी हसीनाओं से यही डायलॉग तुम बोलते होगे।’
‘अरे क्या मैं कॉलेज गोइंग बॉय हूँ, मैन हूँ मैन।
‘उम्रदराज मर्दों पर इश्क का नशा ज्यादा तारी होता है।’
‘जरा देख चाँद की पत्तियों ने बिखर बिखर के तमाम शब
तेरा नाम लिखा है रेत पर कोई लहर आकर मिटाने दे।’
‘छायागीत…?
‘हाँ तुम्हारे उस प्रिय रेडियो जॉकी ने छायागीत में कतील शिफ़ाई का यही शेर अर्ज किया था’
‘फिर गाना कौन सा बजा’ – चहक उठी थी सनोबर।
‘आप की नरम बाँहों में सो जाएँ हम आप यूँ फासलों से गुजरते रहे…’
‘कुछ कहूँ तुमसे…’
‘कह तो रहे ही हो…’
‘रात को ख्वाबों में अक्सर तुम्हें पाता हूँ अपने पास। रुई के फाहे-सी लगती हो नर्म नाजुक। …तुम्हारे ख्वाबों के साथ अब सोने चला, गुड नाइट।’
रात के निर्जन सन्नाटे और एकाकीपन में भी सनोबर ने अपनी किलक खिली मुस्कान को सीपी में बंद मोती की तरह छुपा लिया था। शारव कहीं उसका रक्ताभ चेहरा देख ना ले। उसके बदन पर जैसे बीरबहूटी रेंग गई हो। ऑफलाइन होकर उसने चारों तरफ की खिड़कियाँ बंद कर दी। जैसे शारव वेब-कैम से कूदकर उसके पीछे आकर उसकी आँखें भींच लेगा और फिर वह अपने भीतर के सन्नाटे के जंगल में विचरने लगती।
एक दिन वीराने जंगल में भी पलाश खिले। उस दिन सनोबर के पैर जमीन पर नहीं थे। पंछी बन गई थी। लेडीज कंपार्टमेंट में बैठी खिड़की से बाहर रेलवे ट्रैक के किनारे बसी… तेज गति से भागती झोपड़ियों, ऊँची अट्टालिकाओं को देखते हुए सनोबर का मन उससे भी द्रुत गति से भाग रहा था। उसका वश चलता तो दुनिया की सारी घड़ियों को अपने कब्जे में कर लेती। सामने की सीट पर बैठी स्त्री ने समझा कि सनोबर ने उसे स्माइल दी है और उसने बदले में मुस्कुराकर ‘हाय’ कह दिया। सनोबर चौंक गई। उसके पारदर्शी चेहरे पर कमल खिला था। उस दिन कक्षा में कालिदास को पढ़ाते हुए उसने देखा, उस छात्रा का चेहरा ललछौंह हो गया था। शायद वह प्रेम में होगी। …माँ कहती थी…
‘खैर खून खाँसी खुशी, बैर प्रीत, मधुपान।
रहिमन दाबे ना दबे, जानत सकल जहान।
आखिर घड़ी की सुई सुरमई शाम पर पहुँची, जहाँ उसकी खुशियों की मंजिल थी। अरनाला बीच की रेत पर उँगलियों से सनोबर ने शारव का नाम लिखा था… समंदर की लहरें आ-आकर भिगोती रहीं। …नारियल के घने जंगलों से आती हवाओं में गूँजा था मुहब्बत का राग। एक ही थाट के दो राग। जिंदगी के सफे पर सुरीला सप्तक। अस्ताचल को जाता सूरज, समंदर में डुबकियाँ लगा रहा था और फेनिल पानी में घुल गया था नारंगी रंग। सनोबर का साँवला चेहरा सिंदूरी हो गया था।
‘सनोबर’!!!
‘…कुछ कहा तुमने’
‘…हम्म’
‘क्या?’
‘वही जो तुमने सुना…’
सनोबर ने अपनी पलकें उठाईं और झपकाईं।
लहरों के इस शोर में तुम्हारी बातें बारिश की ठंडी फुहार-सी सुकून दे रही हैं। सनोबर की लंबे बालों वाली सर्प-सी बल खाती चोटी को शारव अपनी लंबी उँगलियों में रस्सी की तरह गूँथने लगा…। और समंदर की नम हवा में भी सनोबर का चेहरा तपने लगा था। भीतर नमक-सा कुछ घुल गया था।
‘…क्या देख रहे हो शारव?’
‘समंदर…’
‘समंदर इधर नहीं उधर सामने है।’
‘तुम्हारी आँखों में हरहराता समंदर है। लहरों का ज्वार है। जो मुझे तुम्हारे पास आने को कह रहा है।
‘…नहीं…’
अब हमें मैं और तुम का फासला मिटा देना चाहिए। अब हम साझा करेंगे सुख-दुख अपने। अब तुम दूर से फोन पर नहीं गुनगुनाओगी… तुम अपने रंजो-गम अपनी परेशानी मुझे दे दो…’
‘अरे वह देखो दू…र….’
साइकिल के हैंडल पर रेडियो टाँगे एक मछुआरा चला जा रहा था। सनोबर साइकिल वाले के पीछे भागी। मछुआरा दूर जा चुका था। दूर हवाओं से छन-छनकर महीन आवाज में यह गाना सुनाई दे रहा था… ‘आ चल के तुझे मैं लेके चलूँ इक ऐसे गगन के तले’। साइकिल वाले के रेडियो पर विविध भारती बज रही थी।
‘यह लो सनोबर…’
‘क्या है?’
‘तुम्हारे लिए कई छायागीत मैंने कंप्यूटर पर रिकॉर्ड किए थे। सारे इस पेन ड्राइव में हैं।’
‘शारव, तुम्हारी और मेरी पसंद पहाड़ और झरने की तरह एक है। हम दो दीवाने दूर देश से आकर एक जगह कैसे मिल गए। सनोबर की आँखों के आगे ‘मुगल-ए-आजम’ फिल्म का वह दृश्य घूम गया जब बगीचे में दिलीप कुमार मधुबाला को मोर पंखा झल रहे थे। और फ्लैश-बैक में उस्ताद बड़े गुलाम अली खाँ का गाना बज रहा था – ‘प्रेम जोगन बन के…’ अपनी आँखें शारव पर टिका दी थीं सनोबर ने।
‘थका हुआ दिन जब बदलता है करवट/ मेरे सीने पे बिखर जाती हैं क्लांत किरणें/ रात भर तुम्हारे सूर्य की ऊष्मा में पालते हैं स्वप्न मेरे…’
‘तुम तो कविताएँ भी रच लेते हो…’
‘हाँ रात में जब नींद बेवफाई करती है तब…’
प्यार के पल छंद ही होते हैं… इसलिए तो ये जिंदगी के सबसे खूबसूरत लम्हे हैं…’
‘अब चलो हम भी मिल जाएँ एक दूसरे में… मेरे घर चलो साथ रहेंगे।’
‘…मतलब लिव-इन रिलेशन…?? बगैर शादी के घर… एक साथ… ना बाबा ना। ‘कमाल है, तुम तो विचारों से एक सदी पीछे हो।’
‘पीछे नहीं, अपनी जड़ों से जुड़ी हूँ।’
एक पुरुष के लिए स्त्री रूपी नदी में डूब जाना अमूमन प्यार की गहराई है। उसी में वो अपनी संपूर्णता समझता है। जबकि एक स्त्री के लिए मन की सीपी के भीतर जो छिपा हुआ मन होता है, उस मन से अपने मन के तार को जोड़ना। स्वेटर के फंदों की महीन-गझिन बुनावट की तरह रफ्ता-रफ्ता बुनती है अपना प्यार।
लिव-इन रिश्तों की सीवन जब उधड़ती है तो बहुत कुछ बदरंग और बेजान हो जाता है। डर के मारे कदम ठिठक जाते हैं – कहीं इस चमक के पार अँधेरे और टूटन की सीलन भरी कोठरी ना हो।’
– ‘प्रेम की मद्धम-मद्धम फुहारों से भीगना ज्यादा सुखद होता है, धूप की तरह प्रेम का रंग तेज चमके तो संध्या की तरह जल्दी ढल जाता है। हम यूँ ही सात जन्मों तक चमकते रहें।’
– ‘मेरा पूर्व जन्म पर कोई भरोसा नहीं है, यह धर्म के कारोबार के लिए रचा गया एक छल है। टेक्नोलॉजी के इस युग में भी पुनर्जन्म के खाँचों में फँसे रहना अपने दकियानूसी विचारों को पनाह देना है।’
‘पिछले जन्म का नाता नहीं, तो हम इतनी दूर से आकर एक जगह पर कैसे मिले…?
‘ओह सनोबर, विविध भारती से त्रिवेणी सुनना बंद कर दो। सिर्फ छायागीत सुना करो।’
‘और तुम कुछ खास रेडियो-जॉकी का रुमानी छायागीत सुनना बंद कर दो।’
‘हम दोनों जैसे एक रूह हों।’
चूड़ी की खनक की तरह दोनों की खिलखिल फिजाओं में गूँजी थी।
उस रात सनोबर ख्वाबों में ही सही शारव के साथ रही। खिड़की खुली थी, फायर ब्रिगेड के सायरन से नींद टूट गई… सुनहरा ख्वाब बिखर गया।
उसने अपना लैपटॉप ओपन किया तो याद आया कि डांस के लिए अलग-अलग म्यूजिक ट्रैक बनाना आसान नहीं है। एक कामयाब नृत्यांगना मीनाक्षी की बिना बजट के हामी बड़ी बात थी। शारव की डांस एकेडमी का यह पहला बड़ा स्टेज शो था। आयोजन सिर पर और एक भी स्पॉन्सरशिप नहीं मिली। लोगों से चंदे उगाहना शारव के उसूल के खिलाफ था। दर्शक आएँ तो ‘पास’ के पैसों से हॉल का खर्चा पूरा हो जाएगा।
रेडियो पर चैनल बदला तो अन्नू कपूर हाजिर थे अपना कार्यक्रम लेकर। सनोबर से मिलने के बाद शारव का रेडियो के प्रति लगाव बढ़ गया था। सनोबर विविध भारती की गजब दीवानी थी। हर प्रोग्राम की डिटेलिंग उसे मुँह-जबानी याद रहती थी।
हर प्रेमी युगल के प्रेम कहानी की शुरुआत हीर-रांझा, लैला मजनूँ, या फिर धर्मवीर भारती के ‘गुनाहों का देवता’ या देवदास और पारो की तरह परवान चढ़ी। हौले-हौले प्यार के बेला चमेली महके। पर अकसर ही प्रेमी जोड़ों के बीच जमाना आड़े आ गया। लेकिन शारव की प्रेम कहानी में जमाने की दीवार नहीं बल्कि उसका खुद का सपना ही खाईं बन रहा था। वह कैसे सनोबर के सपनों में रंग भरेगा, जब उसके जीवन की नैया खुद ही डगमगा रही है।
वह दर्द की स्याही से जिंदगी के सफे लिखता है। एक छोटे-से गाँव से आ कर माया-नगरी में बस कर बड़ा फलक रचना… अपने ख्वाबों को परवाज देना… किस कदर मुश्किल है, यह वही समझ सकता है जिसने भूखे पेट, अनिद्रा में रात गुजारी हो। हर संघर्षशील व्यक्ति कमालिस्तान स्टूडियो की बेंच पर बैठकर, रात गुजार कर जावेद अख्तर बन जाए, जरूरी तो नहीं। समंदर को देखकर कसमें खाने वाला हर इनसान शाहरुख खान बन जाए, जरूरी तो नहीं।
उस रोज दर्शकों के हुजूम से हॉल खचाखच भरा था। शारव की खूब हौसला-अफजाई हुई थी। लाल रंग का लिबास पहने जब मीनाक्षी स्टेज पर आई तो कुछ मिनट दर्शकों की तालियों की गड़गड़ाहट ही गूँजती रही। स्टेज पर लेजर रोशनी की बरसात में मीनाक्षी के पाँव में यूँ थिरक रहे थे जैसे रोशनियों की बारिश हो रही हो। सनोबर मीनाक्षी में खुद को देख रही थी। और कच्चे नारियल सी दूधिया आँखों वाली वैजयंती माला बन गई थी। उस वक्त शारव बन गया था मोहक दिलीप कुमार।
मीनाक्षी ने बेहतरीन प्रस्तुति दी। मीनाक्षी ने उस कस कर गले लगाया, जैसे बरसों बिछड़ी कोई पुरानी सहेली। शारव की निगाहें मीनाक्षी के सीने पर चमक रहे लॉकेट और बदन से चिपकी सलमा सितारों वाली झीनी पोशाक पर थी। सनोबर और शारव की निगाहें मिलीं तो एकदम असहज हो गया शारव। झट टेबल की ओर मुड़ा वहीं सॉफ्ट-ड्रिंक से भरे गिलास से टकरा गया। गिलास छन छन छन करता हुआ सीढ़ियों पर जा गिरा। उसके नारंगी छीटे मीनाक्षी की पोशाक पर पड़ गए।
‘…सॉरी…’
‘नो नो इट्स ओके शारव। यू आर अ जीनियस कोरियोग्राफर। तुम्हें फिल्मों में जाना चाहिए।’
आज अगर थोड़ी प्रतिभा किसी में है तो झट इनसान को फिल्मों का चौखट खुला नजर आता है।
शारव के सपनों का एक अंकुर तो अँखुवाया। पर सनोबर के ख्वालब के मयूर पंख को जगह ही नहीं मिली। काश वो रेडियो के उस पार माईक्रोफोन के सामने हो। उसका ये ख्याली-पुलाव अकसर ही पकता रेडियो सुनते हुए।
रेडियो की कंपेरिंग और गीतों के साथ मुस्कराना कल्पनाओं मैं जीना और है, हकीकत की झुलसती रेत पर पानी तलाश कर प्यास बुझाना और है। चाल के किराये के छोटे से कमरे में, सुबह के इंतजार में… उमस भरी जिंदगी काटना कैसा होता है, ये वही समझ सकता है जिसने इसे भोगा हो। हर 11 महीने में कमरा बदल जाता, कई बार साथ भी बदल जाता। भीड़ के महासागर में हर पल वह खुद को एकाकी पाती। एक ही कमरे में तीन लड़कियाँ… एक तो अपने गाँव वापस लौट गई, दूसरी सुबह सात बजे जाती तो रात 12 बजे वापस लौटती। यह सपनों का शहर कम, संघर्ष और थपेड़ों का शहर ज्यादा है। बड़े-से ख्वाब की ताबीर का झोला लिए वह भी तमाम थपेड़े सह रही थी। शारव का साथ उसे ठंडी छाँव जरूर देती लेकिन ख्वाबों की आग जलती ही रहती। देव के मार्फत एक प्राइवेट स्कूल में टीचर बन जाना ही क्या उसका सपना है…? सिर्फ शारव के ख्वाबों के पैरहन पहन झूठी उड़ान भरने ही आई है वह इस माया नगरी में… इस ख्याल से ही उसके मन का आसमान पिघलता और बरस जाती उसकी आँखें पहुँच जाती अतीत की घाटियों में।
‘जानते हो शारव हमारे घर में अभी भी पुराना टू इन वन है, उससे गुलाम अली के कैसेट को अनगिनत बार रिवाइंड करके सुना है। चूँ चूँ की आवाज करके रिवाइंड फॉरवर्ड का जमाना भी कितनी जल्दी बदल गया ना। काश कोई ऐसी मशीन होती, जो चूँ चूँ की आवाज के साथ वक्त को भी रिवाइंड कर देती…’
‘…कई बार तो रिवाइंड फॉरवर्ड करते हुए कैसेट ही टूट जाता था। मैं भी ऐसे ही गजलें सुनता था। दूरदर्शन से प्रसारित होने वाले मुशायरे को टेप रिकॉर्डर में टेप कर लेता था और मोहब्बतों की शायरी को बार-बार सुनता और डायरी में नोट करता था…।
डांस एकेडमी में मीनाक्षी का जुड़ना शारव के लिए काफी पॉजिटिव रहा। मीनाक्षी की सलाहों से उसकी कोरियोग्राफी में काफी बदलाव आए। कुछ नए ट्रेनर जुड़े और डांस सीखने वाले छात्रों की संख्या बढ़ी। नेहरू सेंटर में ‘डांस फेस्टिवल’ था। उस दिन शारव की टीम की तीन प्रस्तु्तियाँ थीं। ग्रुप ‘ए’ के छात्रों ने जुंबा और मीनाक्षी ने फ्यूजन परफॉर्म किया था। इस बार भी शारव की टीम को ‘बेस्ट परफॉर्मेंस’ का खिताब उसी की वजह से मिला था। स्टेज पर मीनाक्षी स्वर्ग से उतरी अप्सरा सी लग रही थी और डांस के बाद उसने मेनका बनकर तमाम विश्वामित्रों का दृढ़संकल्प डिगाया था।
शारव उसके परफॉर्मेंस से इतना अभिभूत था कि ‘धन्यवाद ज्ञापन’ के समय अपनी टीम के छात्रों का नाम लेना ही भूल गया। न ही दर्शकों का शुक्रिया अदा किया। काफी देर तक मीनाक्षी के गुणगान करता रहा। स्टेज के कोने वाली नीली लाइट और ए.सी. बंद कर दिया गया। दर्शक जा चुके थे, कुछ दर्शक, जिन्हें कलाकारों से मिलने का शौक था वही रुके थे। पर मीनाक्षी की तारीफों के लिए शारव के शब्द जैसे खत्म होने का नाम ही नहीं ले रहे थे। शारव यह भी भूल गया सनोबर नेहरू सेंटर के गेट पर खड़ी उसका इंतजार कर रही है। देर रात जब उसे होश आया, मीनाक्षी का नशा उतरा तो हड़बड़ा कर फोन लगाया।
सनोबर फोन स्विच-ऑफ करके नींद से जद्दोजेहद कर रही थी। नींद ने साथ नहीं निभाया, लेकिन रेडियो ने निभाया। बेगम अख्तर की गजल ‘ऐ मुहब्बत तेरे अंजाम पे रोना आया’ की तर्ज पर उसे खुद पर और अपने मुंबई आने के फैसले पर रोना आया।
गजल खत्म हुई। लड़की रेडियो जॉकी अपनी नशीली आवाज में बोली – ‘आओ आसमान को छू लें हम, अपनी मुट्ठी में थोड़ी सी चाँदनी भर लें…’
एक लंबे गैप के बाद सनोबर और शारव हैंगिंग-गार्डन की बेंच पर बैठे थे। बाकी जगहों पर सारी मुंबई आपके सिर के ऊपर तनी नजर आती है और हर वक्त इनसान को अपने बौनेपन का अहसास होता है। हैंगिंग गार्डन ऐसी जगह है जहाँ नजरें नीची करके शहर को देखने का मौका मिलता है। शहर के शोर को वहाँ से खामोश होकर देखने का अलग ही लुत्फ होता है। लोगों का भागता हुआ हुजूम मन के भीतर गहरा सन्नाटा भर देता है। ऐसे में किसी का नरम स्पर्श मन को हरा कर देता है।
शारव ने सनोबर की हथेलियों को अपने हाथ में लेकर उँगली से लिखा… ‘घर’। सनोबर ने अपना हाथ हटाते हुए कहा था – ‘कैसा घर…?’
‘हमारे सपनों का घर…’
‘बिना ईंट का…?’
‘…नहीं, नींव की ईंट का।’
‘सनोबर, मीनाक्षी रास्ता है मंजिल नहीं है।’
‘पर दो रास्तों पर एक साथ नहीं चला जा सकता।’
‘रास्ता कोई भी हो मंजिल तुम हो सनोबर।’
‘शारव कभी-कभी सपने देखती हूँ, जैसे बहुत ऊँची पहाड़ी पर खड़ी हूँ, नीचे गहरी खाईं है, दूसरी तरफ धुआँधार झरना बह रहा है और मैं गिर रही हूँ। गिरने से पहले की चीख घुट कर रह जाती है, नींद टूट जाती है। फिर कई दिनों तक हरहराते झरने की महीन-महीन बूँदें मेरी आँखों में बरसती हैं। पूरी दुनिया उदास… मायूस लगती है। बेहद एकाकी हो जाती हूँ, एकाकीपन का ये साया कहीं तुम्हारे साथ रहने के बाद भी न कायम रहे।’
‘…बेवजह है तुम्हारी ये उदासी।’
‘…तुम भला क्या समझोगे… तुम्हारे लिए ही तो महानगर की इस भीड़ में शामिल हुई हूँ। वहाँ मैं अकेली भली थी, कम से कम दोस्त मित्र रिश्तेदार तो थे… यहाँ तो पड़ोसी तुम्हें लेकर सवालिया और आत्मीय हो जाते हैं।’
… अचानक शारव का मोबाइल वाइब्रेट हुआ।
मीनाक्षी का मैसेज देख कर जबरदस्ती होंठों पर कब्जा करती अपनी मुस्कान छिपाने के लिए वो अपना चेहरा सख्त और गंभीर बनाने की भरसक कोशिश करता रहा। लेकिन मनोविज्ञान पढ़ी हुई पारखी सनोबर के सामने वह फेल हो गया।
– ‘म’ से ‘मादक’ ‘म’ से ‘मीनाक्षी…’
– ‘म’ से ‘मतलब’?
‘अपना चेहरा आईने में जाकर देखो, अचानक तुम्हारे मन का मौसम बदल गया है। तुम जरूरत से ज्यादा पजेसिव हो।’
इसके बाद दोनों के बीच देर तक खामोशी बोलती रही।
‘…तुम इन रेडियो जॉकीज की ऐसी मिमिक्री करती हो, तुम्हें तो सच में रेडियो में ही काम करना चाहिए था।’
‘…हाँ तो अभी कौन सी देर हुई है?’
‘मेरी एकेडमी एक दिन इतनी बड़ी हो जाएगी, तुम्हें कुछ करने की जरूरत नहीं होगी।’
‘नहीं शारव, मेरे सपनों का भी तो एक फलक होगा जहाँ में खुद उड़ूँगी… कहते हुए अपनी बोझिल-उदास पलकों के भीतर चमकता सजल मोती छुपा लिया और कॉफी से उठते हुए भाप में बनती-बिगड़ती लकीरों को अपनी उँगली से चीरती रही।
‘मीनाक्षी हमें फंड्स में मदद कर रही है, उसकी मदद के बिना डिपॉजिट कहाँ से लाऊँगा एकेडमी के लिए।’
मीनाक्षी के प्रति अपने आकर्षण को छिपाने के लिए अकसर ही वो इस तरह की सफाई पेश करता। अपनी परेशानियों का गट्ठर सनोबर के सामने खोल उसकी उदास नजरों में फिर से भरोसे के बीज बो देता।
उस रात पार्टी में काफी लेट हो गया था।
घर लौट कर सनोबर ने अपना पर्स तिपाई पर पटका, चप्पल शू रैक में रखकर बिस्तर पर औंधे मुँह लेट गई। बहुत देर तक तकिया भिगोती रही। रेडियो ऑन किया।
– शब्द धुँधले पड़ जाते हैं, पर मिटते नहीं निशान… कुछ शब्दों की आँच कभी मद्धम नहीं पड़ती…’ और फिर गाना बजा था – ‘आवाज देकर मुझे तुम बुलाओ…’
नींद से जूझती हुई सनोबर वाल साइज विंडो खोलती है। खूब दूर अँधेरे के पास बत्तियों का एक अलग शहर हो जैसे। आसमान में एक रॉकेट उड़ा। तालाब के पानी पर रोशनी जगमगा उठी। सनोबर की आँखों में पार्टी की रोशनी झिलमिला उठी। मीनाक्षी ने उस रात ड्रिंक ज्यादा ले लिया था। शारव उसे आईस मिलाकर कैसे सर्व कर रहा था। मीनाक्षी ने उसे अपनी बाँहों के घेरे में कैद कर लिया था। म्यूजिक बदलते ही वह शारव की हथेली से अपनी हथेली मिला… एक हाथ उसके कंधे पर रख… एक कदम आगे एक कदम पीछे… चल चल कर बॉल-डांस कर रही थी। तिर्यक आँखों से शारव ने सनोबर को देखा था। वो थोड़ा असहज भी हुआ। उसके चेहरे पर द्वंद्व का भाव सनोबर ने पढ़ा। डांस के स्टेप मिलाते हुए शारव के विराट हृदय में जैसे प्रेम का बाजार हो और मीनाक्षी महज उपभोक्ता। सनोबर का दिल किरच-किरच हो रहा था जैसे सुनसान झील के खूबसूरत शिकारे में बैठी चाँद की परछाईं को पकड़ने का प्रयास कर रही हो। अपने आप से वादा करती है अब नहीं भागेगी परछाईं के पीछे।
प्यार के मौसम में फूलों की खुशबू तो जरा देर की होती है, पर काँटों की चुभन ज्यादा… उस रात सनोबर का दिल दर्द की तपिश में गीली लकड़ी की तरह सुलग रहा था। कभी-कभी देव की बातें सच लगती हैं – ‘जिंदगी में किसी को किसी से प्यार-व्यार नहीं होता। ये सब दो लोगों के बीच की जरूरतें है, बंधन हैं।
‘…कहीं मैं भी शारव के लिए महज जरूरत तो नहीं…!’
उस दोपहर भी जब सनोबर और शारव मल्टीप्लेक्स में बैठे सिनेमा देख रहे थे।
‘शारव तुम्हारा मोबाइल वाइब्रेट हो रहा है।’
मोबाइल के फुल स्क्रीन पर मीनाक्षी का झबरीले बालों से ढका आधा चेहरा चमक उठा था। ऐसा लगा जैसे वह मोबाइल स्क्रीन से बाहर आकर प्रेम की नदी में बहती हुई कश्ती से उसे उतारकर मँझधार में फेंक खुद सवार हो जाएगी। और शारव उसी नाव में बैठा हुआ सिर्फ देखता रह जाएगा।
‘…शायद उसे ‘इनट्यूशन हो गया होगा। वह कभी चैन से बैठने ही नहीं देती…’ मन ही मन बुदबुदाई थी सनोबर।
‘सनोबर तुम बहुत सोचती हो।’
‘हाँ, सच में… घर में होती हूँ दो पहाड़ों के इको पॉइंट की तरह तुम्हारी आवाज घर की दीवारों से टकराकर गूँजती रहती है। लेकिन क्या करूँ उसी आवाज में धीरे से मीनाक्षी का सुर भी मिल जाता है… बस उसके बाद डरता है जी कि हमारे प्यार का ये रेशम-सा महीन धागा मीनाक्षी तोड़ ना दे।’
‘विचारों के इतने धागे मत बुनो कि खुद से ही दूर हो जाओ।’
‘दिल का शीशा जो देख सको तो जानो कि वो सिर्फ तुम्हारे लिए ही धड़कता है।’
‘हाँ लेकिन भावों और शब्दों के तीर इतने तल्ख ना हों कि बाहर की आहट ना सुनायी दे।’
‘शारव, दो दिलों का इकरारनामा हो जाए तो देह जैसी चीज सीमा-रेखा से परे हो जाती है। लोग तो इसे ध्यान-संकेंद्रण भी मानते हैं। पर ना जाने क्यों जिस परिवेश में मैं पली-बढ़ी हूँ, मुझे बगैर शादी की मुहर के अपनी सीमाओं को तोड़ना नामुमकिन-सा लगता है।’
सनोबर की इन विचारशील बातों का शारव पर असर नहीं हुआ।
‘तुम समंदर हो जहाँ मैं डूब जाना चाहता हूँ।’
‘वह भरम है, तलछट है।’
‘तुम हो गहरी नदी।’
‘कभी मीनाक्षी कही है यह बातें?’
‘तुम्हें समझना चाहिए वह मेरी सिर्फ प्रोफेशनल फ्रेंड है…।’
‘अगर कभी मेरा भी कोई साझीदार दोस्त हो तो…?’
…सनोबर ‘सनराइज रेडियो चैनल’ के स्टूडियो से निकलकर गेट पर आ गई थी। काले-कजरारे बादल बूँद-बूँद जमीन पर उतरने लगे थे। सड़क पर दूर तक कोई टैक्सी नजर नहीं आई। पैदल ही तफरीह करती चल पड़ी वह। आज भी उसे आसमान की ओर निहारकर आँखों में बारिश की बूँदों को रोपकर… फिर गालों पर ढुलकाना, इकट्ठे हुए बारिश के पानी में छपाक से पैर डालकर भीग जाना, गिरते हुए ओलों को हथेली में इकट्ठा कर गिनना… खूब सुहाता है।
वह भी भीगी भीगी शाम थी। जब सनोबर शारव के साथ सूनी सड़क के किनारे-किनारे चल रही थी। उस रोज उसका मन बहुत बेचैन था। सात समंदर पार एक नई दुनिया थी, जिसके बारे में सोच खुशी से मन बल्लियों उछल रहा था। लेकिन साथ ही अनजाना भय, साए की तरह पीछा कर रहा था।
‘शारव, तुम्हें याद है ‘सनराइज रेडियो’ के लिए मैंने एक इंटरव्यू दिया था, वहाँ से कॉल लेटर आ गया है।’
‘…??’
शारव की भृकुटि तन गई थी, उसने अजीब निगाहों से देखा था।
‘रेडियो लंदन सनराइज से 2 साल का कॉन्ट्रैक्ट।’
‘और इस नौकरी का क्या होगा…?’
‘एडहॉक पर प्राइमरी स्कूगल की मास्टरनी ही तो हूँ।’
‘फिर दो साल बाद क्या करोगी?’
‘वो तो पता नहीं, लेकिन हाँ, वहाँ से लौटूँगी तो मुझे कोई भी प्राइवेट चैनल जॉब देकर सिर आँखों पर बिठाएगा।’
‘लेकिन इतना बड़ा फैसला… कैसे मैनेज करोगे अकेले?’
‘फिक्र ना करो, देव भी जा रहा है। वहाँ पहुँचकर वह अपने घर चला जाएगा और मैं विमेंस हॉस्टल।’
शारव के चेहरे पर मायूसी और चिढ़ के बादल छा गए थे।
‘देव के साथ जाने की खास वजह?’
‘कोई वजह नहीं, महज एक इत्तेफाक।’
‘कुछ इत्तेफाक जीवन में तूफान लाते हैं।’
‘इनसिक्योर मत हो यार, मैं और तुम दोनों उसे जानते हैं।’
‘नहीं, मुझे वह इनसान नहीं पसंद। आर्टिफिशियल है।’
‘शारव, पसंद तो मुझे मीनाक्षी भी नहीं।’
‘मीनाक्षी का तुमने अफसाना बना दिया है, हर वह बात जैसी दिखती है वैसी नहीं होती सनोबर।’
‘माने…?’
‘मुझे लगा मैं यही मानता रहा कि तुम इस शहर में मेरे लिए आई थी। हम इंतजार कर रहे हैं उस वक्त का… जब हम-तुम संग-संग होंगे।’
‘हाँ, यही सच है। इस शहर में मैं तुम्हारे लिए आई थी, लेकिन अपनी कुछ ख्वाहिशें भी साथ लाई थी। सबसे अजीज ख्वाहिश का विराट पेड़ छतनार हुआ है। तुम उसे काटना चाहते हो…!’
‘अब मेरे संघर्ष के दिन फिर रहे हैं। अब मेरी डांस एकेडमी स्थापित हो रही है, ऐसे में तुम्हारा विदेश जाना, वह भी उस मायावी दुनिया में जहाँ आवाज का जादू सर चढ़ कर बोलता है… जहाँ तिलिस्म ही तिलिस्म है।’
‘डांस की फील्ड में तिलिस्म नहीं है क्या, सिर्फ 2 बरस का ही तो कॉन्ट्रैक्ट है। वापस आकर हमारी जिंदगी में शहनाई गूँजेगी… तब तक तुम भी अपनी एक एकेडमी को ऊँचाई पर ले जा सकोगे।’
‘हैरत हो रही है मुझे… हमारा तुम्हारा आसमान अलग कब हो गया, तुम मुझे छोड़ कर जा रही हो।’
‘जा रही हूँ लौट कर आने के लिए।’
‘सात समंदर पार से कौन आता है लौटकर…’
‘मैंने तुम्हारा पाँच साल बिना किसी उम्मीद, बिना शिकवा-शिकायत के इंतजार किया। तुम दो बरस नहीं कर सकते। या फिर चाहते नहीं कि मेरी कामयाबी…’
सनोबर हैरान थी। उसने सोचा था वह हौसला बढ़ाएगा। उसके बगैर उदास होगा…। लेकिन जैसे आसमान में एक चिड़िया परवाज के लिए अपने पंख फड़फड़ाए और उसका हमसफर पंख कतरने के लिए तत्पर हो। सनोबर उस दिन पंख वाली सुनहरी चिड़िया बनकर, तड़पकर फड़फड़ाई थी। पर शारव एक बहेलिया बन गया था।
उस रोज नीले फूल कढ़े दुपट्टे वाला सूट पहनकर वह बहुत जल्द तैयार हो गई थी। यह सूट शारव ने उपहार में दिया था। निगाहें घड़ी की और टिका दीं। शारव को फोन किया, व्हाटस-एप मैसेज किया। उसका कोई जवाब नहीं आया। फोन की हर घरघराहट पर उठाकर चेक कर रही थी कि शायद इस बार उसी का फोन होगा।
बहुत सारी मुश्किलों को गट्ठर भरकर सूटकेस में भर वह निकल पड़ी थी। एयरपोर्ट के लाउंज में हर आता-जाता व्यक्ति उसे शारव ही नजर आ रहा था। दिमाग को पता था, वो नहीं आएगा। क्योंकि अब तक यही होता रहा था उन दोनों के बीच। शारव की कही बात पत्थर की लकीर होती जबकि सनोबर हर बात पर पिघल जाती। बेकरारी में वो कभी अपनी उँगलियों के नाखून कुतरती, कभी फोन पर कोड डालती, कभी रीसेंट कॉल्स की लिस्ट देखती, और खलिश से भर जाती। मोबाइल उठाकर कई बार उसने अपने घर वालों को फोन करने की कोशिश की, लेकिन मन मसोस कर रह गई, जानती थी कि वो कभी इतनी दूर जाने के लिए ‘हाँ’ नहीं करेंगे, मुश्किलें और पैदा कर देंगे।
उसने बहुत पहले चेक-इन करके अपने आप को ‘फ्री’ कर लिया। बचे हुए समय में शारव के सामने अपनी बातों का पिटारा खोल देगी।
सनोबर ने नोटबुक निकालने के लिए पर्स में हाथ डाला तो साथ में ये पन्ना भी चिपका चला आया।
‘आओ सपने में देखें / ढेर सारे फूल मुस्कुराते हुए/
आओ फुदकें शाख पर नाचती गोरैया की तरह/
चलो आज आसमान को छू लें हम/
बस इतना काफी है सपनों में रंग भरने के लिए…
जिंदगी के लिए’
शारव ने संग-संग बातें करते हुए लिखी थीं ये पंक्तियाँ। उसी पन्ने पर सनोबर ने आगे लिखा था – ‘बहुत जालिम हो तुम, तुमसे डोर क्या जुड़ी, नींद भी छीन ली, चैन भी चुरा लिया। सोने की लाख कोशिश के बाद नींद नहीं आई, तो एक चिट्ठी लिखी तुम्हारे नाम।’
ई-मेल और व्हाट्स-एप के जमाने में भी ना जाने कितने पत्र, डायरी के कितने पन्ने दोनों ने एक दूसरे के नाम लिखे थे। रेडियो-कॉन्ट्रैक्ट के कागज के सामने वो सारे कागजात जिनमें इतनी सारी भावनाएँ भीतर-भीतर गुँथी थीं, वो सब हवा के झोंके में बिखर गए…। सनोबर अपनी कठिनाइयों के साथ जब निपट अकेली होती तो शारव अकसर ही मजबूत स्तंभ की तरह उसे सहारा देता। आज जब अथाह सागर पार कर क्षितिज के उस पार जा बसने वाली है, शारव उसे विदा करने भी नहीं आया…। सनोबर अपनी आँखों में उमड़ते बादलों को रोक नहीं पाई थी।
कुछ पलों के लिए आकर देव ने उसे तसल्ली दी, पर कुछ मौकों पर तसल्ली बेअसर हो जाती है। रूम पार्टनर भी एयरपोर्ट तक छोड़ने आई, पर वह नहीं आया जिसका उसे इंतजार था।
कहते हैं आँसू दर्द के गवाह होते हैं, पर दर्द का हद से गुजरना भी दवा हो जाना होता है। ‘रुखसत के वक्त तुमने जो आँसू हमें दिए/ उन आँसुओं से हमने फसाने बना दिए’ …आँसुओं में अपने दर्द को जैसे उसने फना कर दिया। और अपने भीतर एक ऐसी स्त्री को पल्लवित और पुष्पित किया जो अमर-बेल की बजाय एक सख्त दरख्त में तब्दील हो गई। वो एक ऐसी चट्टान बन गई, जिस पर आँधी-तूफान-बारिश-बाढ़ किसी का असर ना हो… वह अब हर तूफान का मुकाबला खुद करेगी, …प्यार से भी जरूरी कई काम हैं / प्यार सब कुछ नहीं जिंदगी के लिए…’
लौटेगी नहीं लंदन से, शारव की खातिर भी नहीं। शारव के साथ बिताए हर लम्हे को इत्र की शीशी की तरह बैग में रखकर ‘सिक्युरिटी चेक’ के लिए चल पड़ी। आँखों में छाए बादल धीरे धीरे छँट गए थे। निढाल चाल में फुरती और जोश आ गया था। लंदन की उड़ान का एनाउंसमेंट हो चुका था। रनवे पर एयर-बस में घुसने से पहले सनोबर ने मुड़कर देखा, हवा में हाथ हिलाया, बाय कहा उन लम्हों से, जो बीते शारव के साथ।
अब यादों की भूल-भुलैयाँ से बाहर आकर उसने आसमान की ओर देखा… बारिश थम चुकी थी, आसमान नीला और साफ हो गया था। मोबाइल निकाला और विविध-भारती के एप को क्लिक कर दिया। गाना बज रहा था – ‘तुम्हें ये जिद थी कि हम बुलाते / हमें ये उम्मीद वो पुकारें / है नाम होठों पर अब भी लेकिन / आवाज में पड़ गईं दरारें’। …सनोबर ने गालों पर ढुलक आए अपने आँसू पोंछे, फोन बुक खोली और शारव का नंबर ब्लॉक कर दिया।
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आवाज में पड़ गईं दरारें – Aavaj Mein Pad Geen Dararen