आटा | नरेंद्र जैन
आटा | नरेंद्र जैन

आटा | नरेंद्र जैन

आटा | नरेंद्र जैन

चक्की से लगातार गिर रहा था आटा 
गर्म आटा, जिसकी रंगत गेहूँ जैसी थी 
मेरे हाथ पैर 
वस्त्रों और भौहों पर चढ़ चुकी थी 
आटे की एक परत 
कई-कई तरह की रोटियाँ 
टिक्कड़, तंदूरी और रूमाली रोटियाँ 
सुलगते तंदूर की दीवारों पर 
चिपकी थीं रोटियाँ

और 
आटा लगातार कम हो रहा था 
कनस्तर लगातार खाली हो रहे थे 
दुनिया की आधी आबादी 
पीट रही थी खाली कनस्तर

अन्न ही अन्न था चारों तरफ 
और बावजूद अन्न के भुखमरी थी 
किसी के पास 
आटा था एक वक्त का 
किसी के पास दो वक्त का

चक्की दिन-रात चलती ही रहती थी 
बालियों से निकले दाने लगातार गिरते ही रहते थे 
आटे की गंध से तेज थी भूख की गंध

गेहूँ से आटा बनता है 
और आटे से रोटी 
ये जानते नहीं थे मासूम बच्चे 
हर मंगलवार की सुबह 
कस्बे का नगरसेठ आता था 
और बाँटता था अपने हाथों से 
भूखों को खिचड़ी

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