आखेटक | कुणाल सिंह
आखेटक | कुणाल सिंह

आखेटक | कुणाल सिंह – Aakhetak

आखेटक | कुणाल सिंह

रोज-रोज के एक ही दफ्तरी जीवन से उकताकर नेपाल बाबू ने एक दिन सोचा कि आने वाली दुर्गा पूजा की छुट्टियों में क्यों न तफरीह के लिए कहीं बाहर निकला जाए! नेपाल बाबू तारघर में काम करते हैं। सहकर्मियों पर जब उन्होंने अपनी मंशा जाहिर की तो सभी ने एक स्वर में इस नेक खयाल को सराहा। सबने कहा कि मनुष्य को साल में कम से कम एक बार कहीं बाहर घूम आना चाहिए। कि इससे एकरसता टूटती है, जीवनचर्या में ताजगी आ जाती है। कि इस तरह लगातार नौ से पाँच फाइलों में सिर मारते रहने से आदमी आदमी नहीं रह जाता। नेपाल बाबू खुश हुए। उन्होंने जोड़ा कि साथ में कुछ और लोग भी चलते तो मजा आ जाता। एक तरह से पिकनिक हो जाती। क्या खयाल है?

इस पर सब जने का मुँह उतर गया। किसी के घर में कुछ काम निकल आया जिसे इसी छुट्टी में निपटाना जरूरी है नहीं तो आफत आ जाएगी, तो किसी को अपने रिश्तेदारों के यहाँ जाना निकल आया कि उन्होंने पहले से ही निमंत्रण दे रखा था। किसी की ब्याहता बेटी शादी के बाद पहली बार अपने पति के साथ मायके लौट रही थी, तो कोई इस छुट्टी में अपनी छत की मरम्मत करवा लेना चाहता था। इस तरह नेपाल बाबू का साथ देने में सभी किसी न किसी वजह से असमर्थ हुए। हालाँकि सबने अपना जी मसोसा। सबने कहा कि इससे हतोत्साहित होकर नेपाल बाबू को अपना इरादा नहीं बदलना चाहिए। सबने सबकी तरफ से कहा – बेस्ट ऑव लक!

एक तरह से देखा जाए तो नेपाल बाबू को कोई ज्यादा दुख नहीं हुआ। पहले से उनका अनुमान था कि ऐसा ही कुछ होगा। यह उनकी पहली नौकरी है और इसके चार साल हो गए। उम्र की लिहाज से बाकियों से काफी छोटे थे नेपाल बाबू। अकेले वही थे जिनकी अभी शादी नहीं हुई थी। जिनके ऊपर चिंताओं का पहाड़ नहीं टूट पड़ा था। जिन्हें पाँच बजते न बजते घर लौटने की हड़बड़ी नहीं होती थी। दफ्तर से उनका घर भी ज्यादा दूर नहीं था। सुबह ट्यूशन नहीं, शाम को किसी पार्टटाइम का झमेला नहीं। तनख्वाह जो मिलती थी, अकेले के लिए काफी थी। कभी-कभी शौकिया कुछ बनाकर खा लिया, नहीं तो होटल-ढाबा जिंदाबाद! दफ्तर में अकेले वही थे, जो धोबी के यहाँ धुले कलफदार कपड़े पहिना करते थे। जो कभी ‘गोल्ड फ्लेक’ के नीचे का कुछ मुँह से नहीं लगाते थे। हर शनिवार की शाम बियर पीते और रविवार को सिनेमा देखने जाते।

वे जानते थे कि कोई उनका साथ न देगा और न ही यह कहेगा कि नेपाल बाबू आप अकेले हैं। घर-गृहस्थी का बोझ नहीं सिर पर। तिस पर बाप-दादे की दौलत है। आप उड़ाइए-पड़ाइए, हमें क्या! आपकी देखा-देखी हम भी बोनस के रुपयों का श्राद्ध कर दें तो उन देनदारियों का क्या होगा जिन्हें अब तक टालते आए थे! बाल-बच्चों समेत फाके करने पड़ेंगे। खैर, किसी के ना कर देने मात्र से नेपाल बाबू रुकनेवालों में से नहीं थे। लेकिन समस्या यह थी कि कहाँ जाया जाए! दीघा-पुरी वे पहले ही घूम चुके थे। उत्तर की तरफ जाने का मन नहीं था। बहुत सोचने-विचारने के बाद उन्होंने तय किया कि इस बार सुंदरवन की सैर की जाए।

जल्दी ही नेपाल बाबू ‘तन-मन-धन’ से सुंदरवन की यात्रा की तैयारी में जुट गए। सुंदरवन की बात हो तो नामुमकिन है कि रॉयल बेंगाल टाइगर का खयाल न आए। नेपाल बाबू ठाकुर परिवार से वाबस्ता हैं। सो हुआ यह कि बाघ का खयाल आते ही उनकी रग-रग में राजपूती खून ठाठें मारने लगा। एक बार सोचा कि क्यों न तफरीह के बहाने बाघ के शिकार पर चला जाए सुंदरवन! बाप-दादे के जमाने की एक पुरानी बंदूक भी थी घर में। अब तक उसका इस्तेमाल होते नेपाल बाबू ने नहीं देखा था। विलायती है। कहा जाता है कि एक बार किसी बात से प्रसन्न होकर अँग्रेजों ने यह बंदूक उनके दादा को भेंट की थी। बहरहाल, इस शिकार के संबंध में एक बात गौर करने लायक थी कि आजकल सुंदरवन में बाघों की तादाद पहले की अपेक्षा बहुत कम हो गई है। जो थोड़े बाघ बचे भी हैं तो उन्हें सरकारी प्रोटेक्शन मिला है। ऐसे में उनका शिकार करने निकलना बड़ा रिस्की मामला है। पकड़े जाने पर जाने क्या सजा हो! नौकरी जाएगी सो अलग। दुनिया भर में फजीहत हो जाएगी। एक पल के लिए काँप गए नेपाल बाबू। लेकिन ‘वह रहा एक मन और’ जिसने दूसरे ही क्षण उन्हें बहुत धिक्कारा। छी, कितनी शर्म की बात है कि एक छोटा-सा जोखिम मोल लेने से वे कतरा रहे हैं। इसका सकारात्मक नतीजा यह निकला कि छुट्टी शुरू होते ही वे सुंदरवन के लिए रवाना हो गए। कपड़े-लत्ते की एक अटैची के अलावा उनके साथ एक दूरबीन, एक जोड़ी गम-बूट और वह खानदानी बंदूक भी थी।

रानाघाट से बस चली, चार घंटे हुए। खिड़की से नेपाल बाबू को जो दिख रहा है, वह प्रदेश बंगाल का ही तो है। नेपाल बाबू का इस तरफ आना पहली बार हुआ है। उन्हें लगता है, यह कोई दूसरी दुनिया है। जहाँ तक नजर जाती, चारों ओर हरियाली, खेत, बाग-बगीचे और दूर तक ऊसर हरी जमीन, जिस पर इक्के-दुक्के ढोर चरते दिखते हैं। सड़क के दोनों ओर ढलान। मेड़ों पर शीशम, अशोक और इसी तरह के महँगे पेड़। पेड़ों पर ठुँके हुए टीन के पीले पत्तरों पर पेड़ों का नंबर। ढलान से उतरकर सड़क के साथ-साथ बिजली की तीन तारें और उन्हें लटकाए एक निश्चित अंतराल और ऊँचाई वाले खंभे। पास ही कोई नदी होगी या बहुत बड़ी झील-नेपाल बाबू ने हवा में बढ़ती ही जाती नमी को महसूस कर अंदाजा लगाया। एक अजीब बात यह थी कि खिड़की से बाहर जो दृश्य दिख रहा था, उसमें लोग बहुत कम दिख रहे थे। औरतें तो बिल्कुल ही नहीं।

सुंदरवन के सबसे समीपवर्ती गाँव फुबुईदह में ठहरे नेपाल बाबू – मुरशेद मियाँ के घर। यह जानकर विचित्र अनुभूति हुई कि शहर से आए पर्यटकों और घुमंतू लोगों को अपने यहाँ आश्रय देना, उन्हें घुमाना-फिराना, उनके खाने-पीने और मनोरंजन का समुचित बंदोबस्त करना आदि ही इस गाँव के लोगों का मुख्य पेशा है। इसके लिए आगंतुकों को एक निश्चित रकम ‘फीस’ के रूप में अदा करनी होती। इसके अलावा बख्शीश इत्यादि भी। यों कुछ घर खेती-बाड़ी भी करते हैं, मगर साइड बिजनेस की तरह। तो नेपाल बाबू ने मुरशेद के घर अपना डेरा जमाया। मुरशेद ने पहले ही यह जान लेना उचित समझा कि वे यहाँ कितने दिनों के ‘टूर’ पर आए हैं, उनके खास शौक क्या हैं और यह भी कि उनका ‘बजट’ क्या है। नेपाल बाबू ने सबकुछ साफ-साफ बताया। मुरशेद ने मन ही मन नेपाल बाबू से मिलने वाली बख्शीश की मोटी रकम का अंदाजा लगाया। दो-ढाई सौ दे देना इनके लिए बड़ी बात न होगी। उसे सबसे ज्यादा खुशी इस बात की थी कि नेपाल बाबू जैसा मालदार आसामी बिल्कुल ‘ऑफ सीजन’ में उसके हाथ लगा है, जब गाँव के लगभग सारे घर ‘टूरिस्टों’ से खाली पड़े होते हैं।

मुरशेद के परिवार में उसके अलावा और तीन लोग थे। मुरशेद की अपाहिज बूढ़ी माँ, मुरशेद का बड़ा भाई रफीक और मुरशेद की भाभी जुल्फिया। रफीक पागल था। दिन भर इधर-उधर डोलता, अंट-शंट बकता रहता था। घर की सारी जिम्मेदारी मुरशेद और जुल्फिया पर थी। नेपाल बाबू ने देखा, जुल्फिया थी तो रफीक की बीवी पर सोती मुरशेद के कमरे में। उनके इस संबंध को लगता है रफीक और बुढ़िया स्वीकार कर चुके हैं। सबकुछ इतना स्वाभाविक था कि नेपाल बाबू ने पहले यही समझा कि जुल्फिया मुरशेद की बीवी है। बाद में मुरशेद ने ही एक दिन अकेले में यह भेद खोल दिया। जुल्फिया चालीस-बयालीस की एक थिराई हुई औरत थी। चंचलता का नामोनिशान नहीं। साँवले, लेकिन तीखे नाक-नक्श वाली जुल्फिया यदि गोरी होती तो चेहरा जीनत अमान से मिलता-जुलता था। घुटनों तक लंबे काले बाल थे। शायद बालों के कारण ही उसका नाम पड़ा था जुल्फिया। शरीर में जगह-जगह गोदने गुदे थे। और भी कुछ ऐसी बातें थीं जिनसे नेपाल बाबू को जुल्फिया अजीब लगी। वह आश्चर्यजनक रूप से भारी-भारी साँसें लेती थी या फिर उसकी देह से एक अजीब खट्टी गंध आती थी जो पसीने की भी हो सकती है। इन दोनों ही बातों से नेपाल बाबू को वितृष्णा हुई। बहरहाल।

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दूसरे दिन नाश्ता-पानी के बाद नेपाल बाबू मुरशेद के साथ आखेट को निकले। जंगल गाँव से कुछ दूर था, इसलिए मुरशेद ने रिक्शे का बंदोबस्त कर रखा था। रिक्शेवाले ने रिक्शे की काफी सजावट कर रखी थी। रंग-बिरंगे फीते लगे थे। हैंडिल पर रंगीन प्लास्टिक की दो चक्कियाँ लगी थीं जो हवा में सर्र-सर्र घूमती थीं। रिक्शे के पीछे खूब जमाकर लाल रंग से ‘जय जवान जय किसान’ लिखा था। रिक्शे पर सवार नेपाल बाबू को यदि उनका कोई परिचित देखता तो एकबारगी पहचान नहीं पाता। सिर पर फ्लाइंग हैट, गले में लटकती दूरबीन, घुटनों तक ओवरकोट और ऊँचे पाँयचे वाले भारी गम-बूट। दास्ताने पहिने हाथों में वही खानदानी दोनाली बंदूक फब रही थी। मुरशेद ने दोपहर का खाना-पीना भी साथ ले लिया था। विचार था कि दिन भर घात लगाकर बैठा जाए। मुरशेद ने बताया कि बाघ अक्सर एक क्षण के लिए दिखते हैं, फिर गायब हो जाते हैं। अगर ऐन उसी वक्त उन पर फायर न किया जाए तो दूसरा मौका कब हाथ में आएगा, कोई ठीक नहीं। नेपाल बाबू बहुत उत्साहित थे। उन्होंने देखा, दूर क्षितिज के पास काई के रंग जैसी एक दीवार दिख रही है। यही जंगल है – नेपाल बाबू ने सोचा।

रिक्शा जंगल के धुँधलके में जाकर रुका। दोनों सवार उतरे। मुरशेद ने रिक्शेवाले (उसका नाम जलाल था) को बताया कि वापस लौटने के वक्त ठीक पाँच बजे वह यहीं मिले। इसके बाद दोनों आगे बढ़े। नेपाल बाबू को अजीब रोमांच का अनुभव हो रहा था, मगर ऊपर से वे भरसक स्थिर दिखने का यत्न कर रहे थे। रिक्शेवाले ने जहाँ उन लोगों को छोड़ा था, वहाँ से कोई चार-पाँच रस्सी भर आगे जंगल का घनापन खड़ा था, जिसे भेदते हुए वे भीतर घुसे। एक पर एक विभिन्न प्रजातियों के पेड़ों का अंधा लिबास। एक ऐसा सिलसिला जिसका कोई अंत ही न सूझता हो। रास्ते कहीं न थे। रास्ते के खोएपन में एक रास्ता मुरशेद के पीछे-पीछे रेंगता था जिस पर नेपाल बाबू कदम जमाते हुए चले। पेड़ों, उनसे लिपटीं लताओं, झाड़ियों और गीली मिट्टी की मिली-जुली गंध से नेपाल बाबू का यह पहला परिचय था। जंगल की सांद्रता को तलवार की चीरते हुए वे किसी नदी की तरह लगे थे।

मुरशेद जंगल से अच्छी तरह परिचित था। वह अक्सर यहाँ आता होगा – ‘टूरिस्टों’ को घुमाने-फिराने। जल्द ही वे एक अपेक्षाकृत साफ, लेकिन आड़ की जगह पहुँच गए। दोनों वहाँ बैठे। दोनों ने अपनी पोजीशन ली। मुरशेद इशारे में बातें कर रहा था। उसने इशारे से बताया कि अक्सर सामने की तरफ से ही बाघ आते हैं। नेपाल बाबू ने अपनी बंदूक अभी से ही उस दिशा में तान ली और एक बार दूरबीन से नजारा लेने लगे। जल्द ही उन्हें लगने लगा कि दूरबीन की यहाँ कोई आवश्यकता नहीं। वे एलर्ट होकर बाघ का इंतजार करने लगे, जबकि दो कदम के फासले पर मुरशेद आराम से बैठ गया।

धीरे-धीरे समय बीतने लगा। एक बार नेपाल बाबू ने घड़ी देखी-बारह बजकर पैंतीस मिनट। दोपहर के सुनसान में जंगल इतना चुपचाप था कि नेपाल बाबू को लगा, जिनसे वे घिरे हुए हैं, वे पेड़ किसी की प्रतीक्षा कर रहे हैं। समय के निरंतर बीतते जाने के कारण प्रतीक्षा करते-करते वे अपनी जगहों पर इस तरह फ्रीज हो गए हैं कि एक पत्ती तक का हिलना दुश्वार है। नेपाल बाबू घात लगाए बैठे रहे। वे कहीं बहुत गहरे महसूस कर रहे थे कि उनकी एक जरा-सी हरकत देह की त्वचा को फलाँगती हुई जंगल की जमीन पर छन्न से बजेगी। एक जरा-सी हरकत ऐसी उम्रदराज वस्तु बन सकती है जिसे कतई नजरअंदाज नहीं किया जा सकता। नेपाल बाबू समझ गए कि मुरशेद इशारे में ही क्यों बात कर रहा था।

दोपहर का खाना खाने के बाद नेपाल बाबू थोड़े ताजादम हुए। एक क्षण के लिए उनके मन में यह विचार आया कि आखिर बाघ ने उनका क्या बिगाड़ा है कि इतनी दूर वे उसका शिकार करने चले आए। मन भी बड़ा विचित्र है। देखिए कि दूसरे ही क्षण वह यह सोचकर मुस्कराए कि अक्सर पेट भरने के बाद ही आध्यात्मिक विचार कौंधते हैं। किसी ने ठीक ही कहा है – भूखे पेट भजन नहीं होता! वे वापस अपनी जगह पर आ गए। बाघ जैसे किसी आड़ में छिपकर उनके धैर्य की परीक्षा ले रहा हो। मुरशेद पर गुस्सा आ रहा था कि यह कौन सा जंगल है जहाँ बाघ तो दूर, एक परिंदा भी पर मारने नहीं आ रहा। जो दिख रहे हैं, वे गूँगे पेड़ हैं – एक-दूसरे पर लदे हुए। नेपाल बाबू के मन में निराशा घर कर रही थी। दृश्य में चारों तरफ हरे की सख्त जिल्द मढ़ी थी। नेपाल बाबू को लगा, वे किन्हीं अदृश्य नजरों की जाल में घिर रहे हैं। जंगल उन्हें अपनी तीखी नजरों से अपलक घूर रहा है और वे नंगे हो रहे हैं। वे सारे अनजाने गुनाह, जो शहर में रहते हुए उनसे हुए हैं, धीरे-धीरे उघड़कर सामने आ खड़े हुए हैं। जंगल के घने में कुछ नहीं छिप सकता, सिवाय बाघ के। उन्होंने मुरशेद से पूछना चाहा, क्या जंगल की आँखें होती हैं! वह थोड़ी दूर पर उढ़का तटस्थ मुद्रा में बीड़ी पी रहा था। जंगल के कैमरे में नेपाल बाबू की तस्वीरें खिंच रही थीं। उन्हें चिंता हुई, क्या वापस लौटते समय वे अपनी सारी तस्वीरें बटोर सकेंगे! कुछ न कुछ हमेशा छूट जाता है, जैसे पानी पीने के बाद ग्लास में पानी के कुछ टुकड़े!

शाम को लौटते समय नेपाल बाबू उदास थे। मुरशेद उनकी उदासी की वजह नहीं समझ सकता। ज्यादा से ज्यादा यही समझेगा कि सारे दिन बाघ का दर्शन न होने के कारण वे उदास हैं। उसे इस बात की तनिक भी भनक नहीं कि नेपाल बाबू के मन में कौन सी उथल-पुथल मची है। घर लौटते हुए मुरशेद बच्चों की तरह खुश था। नेपाल बाबू को चिढ़ हुई। उन्हें लगा, वह अपनी अतिरिक्त खुशी से दिन भर के निरर्थकताबोध को भुलावा दे रहा है। उसे क्या पता कि आज कौन सा सत्य नेपाल बाबू के हाथ लगा है! ‘सत्य’ शब्द का मन ही मन उच्चारण नेपाल बाबू को प्रीतिकर लगा। वे ‘सत्य’ शब्द को जुबान की नोंक से चुभलाने लगे। बार-बार ‘सत्य’ शब्द सोचते ही स्मृति में रामकृष्ण, चैतन्य महाप्रभु, विवेकानंद आदि का चेहरा घूम जाता था। नेपाल बाबू मुस्कराए। उन्हें मुस्कराता देख मुरशेद ठठाकर हँस पड़ा। नहीं, वह हँसकर नेपाल बाबू का मजाक नहीं बना रहा। दरअसल नेपाल बाबू की मुस्कराहट का अतिरेक है मुरशेद का हँसना। जैसे बूँद का बाहुल्य है नदी और नदी का समुद्र। इसके बाद यदि नेपाल बाबू ठठाकर हँस देते तो तय था कि मुरशेद रिक्शे से गिर जाता और जमीन पर लोट-पोट होकर हँसने लगता।

इसी तरह दो दिन बीते। शुरू-शुरू में अच्छा लगा। नेपाल बाबू ने जीवन में पहली बार किसी जंगल को देखा, ऐन जंगल के बीच जाकर। उन्हें याद आया, जंगल की एक तसवीर उनके कमरे में टँगी है। शायद वह अफ्रीका या ब्राजील का कोई जंगल होगा। बचपन में सतपुरा और हिमालय के तराई प्रदेश के जंगलों के बारे में पढ़ा था भूगोल की किताब में। लेकिन इन दो दिनों में ही नेपाल बाबू को लगने लगा कि इसमें वो ‘एडवेंचर’ नहीं है। वे बचपन से फुर्सत के क्षणों में जिस अदेखे जंगल के बारे में सोचते थे, उससे यह साक्षात जंगल काफी भिन्न है। यह जंगल अपनी दिनचर्या में बहुत साधारण और एकरस होगा। पेड़ बहुत सुस्त और ठंडे थे। हवा भी थिराई हुई-सी।

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जंगल प्रदेश में रातें अक्सरहाँ शराब की तरह तांबई और गर्म उतरती हैं। रात का नशा आँखों के अधखुले पोपटों पर सुबह होने तक तारी रहता है। जुल्फिया ने नेपाल बाबू का बिस्तरा लगा दिया था और मुरशेद के पास चली गई थी। वह जगा था। बेचैनी से करवट बदलते मुरशेद की चिंता ताड़ लेने में जुल्फिया को मिनट भर भी न लगा। वह तनिक हँसी। बोली, सब सँभाल लेगी। आज से पहले कितनों को सँभाला है, एक नेपाल बाबू भी सही। मुरशेद ने थके होंठों से उसे चूम लिया। शुरू-शुरू में अजीब लगता था। कई टूरिस्ट महीने भर के लिए आते और हफ्ता बीतते न बीतते ऊबकर चले जाते। ऐसे में मुरशेद और उस जैसे गाँव के तमाम गाइडों का नुकसान होने लगा। अंत में टूरिस्टों को टिकाने के लिए जुल्फिया और उस जैसी तमाम पत्नियों-बेटियों को आगे आना पड़ा। अब तो यह गाँव का रिवाज जैसा है। आखिर टूरिस्टों के हर तरह से मन-बहलाव में ही तो लाभ है! इसे भला कौन नहीं समझता! मुरशेद का विचार था कि न हो तो पड़ोसी जब्बार मियाँ से बात करके उसकी कमसिन बेटी रूबी को बीस-पचीस रुपया प्रतिदिन के हिसाब से काम पर लगा देगा। लेकिन जुल्फिया ने आश्वस्त किया कि नेपाल बाबू के लिए वह काफी होगी। वे भले ही दूसरे टूरिस्टों की तरह लंपट न दिखते हों, पर हैं तो आखिर मर्द ही!

कहने को तो कह गई, पर बाद में अपने कहे पर सोचने लगी जुल्फिया। वह जानती है कि किसी भी पराये मर्द को इस तरह एकाएक (उसके पास समय बहुत कम था) अपने वश में कर लेने के लिए मादक भावनाओं के एक विक्षिप्त दौरे (हिस्टीरिया?) की जरूरत होती है, जबकि वह उम्र की एक ऐसी अवस्था में थी जब शरीर पर हावी तमाम ऐंद्रिकताएँ धीरे-धीरे बुझने लग जाती हैं। शुरुआती यौवन की सिहरनों और छोटे-मोटे दैहिक आश्चर्यों के सारे रोंएँ झड़ जाते हैं। देह की उत्तेजना अब तक महज फैलने-सिकुड़ने की आदत तक सीमित रह जाती हैं। ऐसे में जुल्फिया के लिए यह सरल नहीं था कि अतीत के उन उन्मादों को एक बार फिर से जिए, उस विस्मृत ‘ज्ञान’ को फिर से अर्जित करे और उससे अपनी देह को फिर से समृद्ध बनाए। निश्चित ही उसे अभिनय करना पड़ेगा। वह भी इतना स्वाभाविक कि नेपाल बाबू को इसका तनिक भी आभास नहीं हो कि वह ढोंग कर रही है। यह सबकुछ क्या इतना आसान था! लेकिन इसके अलावा और कोई चारा भी तो नहीं। उसने तय किया कि कल से ही वह नेपाल बाबू के लिए जाल बिछाना शुरू कर देगी। एक-एक पर्त के हटने तक उसे नेपाल बाबू पर कुछ भी जाहिर नहीं होने देना है। शिकार यदि जान जाए कि उसके लिए कोई घात लगाकर बैठा है तो वह अतिरिक्त सावधानी बरतने लगता है। ऐसे में शिकार उतना वेध्य नहीं रह जाता।

दूसरे दिन सुबह-सुबह ही आकाश में बादल घिरने लगे। पच्छिम की तरफ दूर दृश्य के सुलझेपन में धीरे-धीरे अँधेरा छा रहा था। इन अचानक बादलों की वजह से सुबह-सकारे की कुछ उजली थिगलियाँ क्षण भर के लिए चमकीं, फिर सँवला गईं। वायुमंडल में आश्चर्य था। पक्षी और पेड़ शंकाकुल। नींद के चुकने के बाद भी नेपाल बाबू अलसाए-से पड़े रहे। अंदर से बुखार जैसा भी महसूस हुआ। मौसम की इस गड़बड़ी की वजह से कोठरी में एक रहस्यमय अँधेरा तिर रहा था। आँखें खुलने के बाद कुछ देर के लिए नेपाल बाबू को समझ में नहीं आया कि वे कहाँ हैं! पलांश बाद जब चेतना लौटी तो कोठरी में रखी चीजों पर एक सरसरी नजर दौड़ाई। सबकुछ आपस में इतना गड्डमड्ड था कि अलग से पहिचान में न आता था। हर पहली चीज के रंग-वलय में दूसरी चीजें घुल-मिल गई थीं। गौर करने पर धीरे-धीरे वे अलग हुईं। तब तक देर हो चुकी थी और नेपाल बाबू मन ही मन ठान चुके थे कि आज जंगल नहीं जाएँगे। सारा दिन आराम करेंगे। बाद दोपहर यदि मौसम ठीक रहा, तो गाँव में तफरीह के लिए निकलेंगे।

लेकिन नाश्ता करने के समय तक आसमान इस कदर धुल-पुँछ गया कि बादल की एक खरोंच भी न रही। नेपाल बाबू के पास जंगल जाने के कार्यक्रम को रद्द करने का अब कोई प्रत्यक्ष बहाना न रहा। तिस पर भी उन्होंने मुरशेद पर अपनी मंशा यह कहते हुए जाहिर कर दी कि उनकी तबीयत कुछ नासाज जान पड़ती है। जितना अपेक्षित था, उससे कहीं ज्यादा चिंतित हो गया मुरशेद। उसने उन्हें छूकर ताप जाँचा और आराम करने की सलाह दी। अब तक जलाल रिक्शा लेकर आ चुका था। मुरशेद रिक्शे से पास के कस्बे में जाकर दवा इत्यादि का प्रबंध करे, ऐसा जुल्फिया ने कहा। नेपाल बाबू ने इसे महज अपनी हरारत बताकर उसे रोकना चाहा, मगर उनकी एक न चली। मुरशेद चला गया। जुल्फिया ने नेपाल बाबू को सहारा देकर उठाया, हालाँकि इसकी जरूरत न थी। वे अपनी कोठरी में आ लेटे। जुल्फिया उनके सिरहाने आ जमी और उनके सिर की मालिश करने लगी। नेपाल बाबू को यह अतिरिक्त देखभाल नागवार गुजर रही थी। उन्हें जबर्दस्ती मरीज बनाया जा रहा था। पर्दे के पीछे कौन सा खेल शुरू हो चुका था, इसका उन्हें तनिक आभास न था।

धीरे-धीरे नेपाल बाबू जुल्फिया के स्पर्श से अस्थिर होने लगे। उन्होंने अपनी आँखें बंद कर लीं और सोने का प्रयत्न किया। बात दरअसल यह थी कि जुल्फिया के स्पर्शों की महीनी और निपुणता उनकी देह पर अनचाहे चिह्न छोड़ने लगी थी। उन्हें लग रहा था जैसे सैकड़ों ठंडी चींटियाँ एड़ी से लगाकर सिर (जहाँ जुल्फिया अब भी मालिश कर रही थी) तक रेंग रही हैं। रह-रहकर दिखाई न पड़ने वाली ऐसी हलचलें होती थीं कि उनकी देह की मांसपेशियाँ समृद्ध होना शुरू हो गईं। उनका असमय सोने का यह प्रयास खुद को दबाने जैसा था और जब वे इसमें असफल होने लगे तो हाथ के इशारे से जुल्फिया को रोक दिया। जुल्फिया ने देखा, वे बहुत हल्के काँप रहे हैं। वह समझ गई। विजित भाव से उठकर जाने लगी। उसे अंदाजा न था कि सबकुछ इतना आसान होगा। वह थोड़ी चकित भी हुई थी। फिर उसे अच्छा लगा कि उसकी शालीन हरकतों में अब भी वे उत्तेजक और हिंस्र झाड़ियाँ बच रही हैं जो मर्दों को लहूलुहान कर सकती हैं। देह का कोई ऐसा अँधेरा और रहस्यमय कोना अब भी अक्षत है जिसकी वजह से अनजाने ही वह बुढ़ापे की श्लथ और निष्क्रिय गति की तरफ ढकेली नहीं गई। इस तरह स्वयं के अब भी बने होने का अहसास उसके मुँह में कोई अच्छा-सा स्वाद छोड़ गया।

दोपहर बाद मुरशेद घर लौटा। वह हाँफ रहा था। जुल्फिया को पुकारा। एक बार, फिर दूसरी बार। वह पड़ोस में थी। आँगन में रखी बाल्टी से एक लोटा पानी निकालकर पिया। उसके बाद फिर एक लोटा पिया। अँगोछे से हाथ-मुँह पोंछते हुए नेपाल बाबू की कोठरी की तरफ बढ़ा। सुबह जुल्फिया के जाने के बाद बड़ी देर तक नेपाल बाबू करवटें बदलते रहे थे। उसके बाद कब नींद आ गई थी, पता नहीं चला। कोई घंटा भर पहले जुल्फिया उन्हें दोपहर का खाना खिला गई थी। अब वे चारपाई पर पड़े कुछ सोच रहे थे कि मुरशेद आया। नेपाल बाबू ने सुना कि आते ही मुरशेद ने जुल्फिया को पुकारा। एक बार, फिर दूसरी बार। सोचा बता दें कि वह घर पर नहीं, पड़ोस में है। लेकिन वे चुप रहे। आँगन में रखी बाल्टी बजी। नेपाल बाबू ने सोचा, मुरशेद पानी पी रहा होगा। फिर मुरशेद के कदमों की आहट हुई। मुरशेद इधर ही आ रहा होगा – नेपाल बाबू ने सोचा। इतनी देर में मुरशेद आ गया।

”मालिक, कुछ सुना आपने? उधर तो बहुत हो-हल्ला हुआ है!”

”क्यों, क्या बात हुई?” नेपाल बाबू उठ बैठे, ”तुम तो कस्बे की तरफ गए थे न! कोई झगड़ा-फसाद हुआ…”

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”नहीं मलिक, उससे भी भयानक बात जो हुई सो कहाँ जा पाया कस्बे की तरफ! आपकी दवाई भी रह गई लाने को। अब कैसी तबीयत है आपकी? …क्या इधर कुछ नहीं सुना आपने? गाँव भर में चर्चा है मालिक। सबके हाथ-पाँव फूल रहे हैं। मैंने तो कह दिया लोगों से, डरने की कोई बात नहीं। कलकत्ते से मालिक आए हैं, बंदूक के साथ। दो-चार दिनों में सब ठीक हो जाएगा।”

”मेरी बात कर रहे हो? बात क्या है, साफ-साफ कहो।”

”पूरब की तरफ जिधर जंगल है, बाँसीपाड़ा के कुछ छोकरे गए थे सुबह निबटान वगैरा के लिए। लौटें तो सालों को साँप सूँघ गया था। भागते हुए आए थे, दम फूल रहा था। …बाघ दिखा था मालिक। बाद में दो-चार लोग और गए तो फिर दिखा। निर्भय होकर विचर रहा था। अब गाँव की खैर नहीं। आप कुछ कीजिए मालिक। दो-चार दिन घात लगाने से ही बाघ को धर सकेंगे। मैंने तो लोगों से कह दिया।”

भीतर ही भीतर नेपाल बाबू थोड़ा धसके। मुरशेद से पानी माँगा। मुरशेद दौड़कर लाया। तब तक जुल्फिया भी आ चुकी थी। समूची कहानी सुनने के बाद वह भी आश्वस्त हुई कि नेपाल बाबू के रहते डरने की कोई बात नहीं। यह कहते हुए उसने कैसे तो नेपाल बाबू को देखा और देखने के बाद उसके होंठों पर कैसा तो एक सलज्ज हास एक पल के लिए खेल गया, यह नेपाल बाबू ही समझ सकें।

शाम होते न होते मौसम के मिजाज ने फिर से करवट ली। देखते-देखते आसमान में चारों ओर बादल छा गए। नेपाल बाबू ने कोठरी की खिड़की से देखा, बारिश शुरू हो चुकी है। बारिश नहीं, इसे फुहार कहते हैं जब झड़ी में त्वचा को खरोंच डालने वाले ब्लेड नहीं होते। जैसे मानसून के अंतिम दिनों में होता है। बारिश नहीं, बारिश का ढोंग। हवा में एक गीली गंध तिर रही है, जैसे किसी के महीनों से न धुले मोजे खुले पड़े हों।

यह कुछ ऐसा था जैसे वर्षों से इस्तेमाल न किए गए और अब भुला दिए गए किसी कमरे का दरवाजा हमारी ही किसी गलती से या लापरवाहीवश अचानक खुल गया हो। हमारी आँखों के आगे कमरे में रखी गईं कई पुरानी और वर्तमान के आलोक में रहस्यमयी हो चलीं चीजें निकल आई हों – अपने बासी और भुरभुरी गंध के साथ। हम अचानक चौंक जाते हैं। एक बीत चुकी दुखभरी और गाँठदार कहानी की थिगलियाँ उभर आती हैं। हमने उसे भुला दिया था और अब भी जिसे भुलाये रखना चाहते हों, लेकिन वह अपनी निर्लज्ज संपूर्णता के साथ हमसे अपने हिस्से की धूप और हवा और पानी माँगती खड़ी रहती है। हम मुँह चुराते हैं। रास्ते में चलते हुए अचानक सिटपिटाकर इधर-उधर देखने लगते हैं कि किसी ने हमें देखा तो नहीं! नेपाल बाबू ने पलटकर देखा, मुरशेद पड़ा ऊँघ रहा था और सिवाय इन गूँगे पेड़ों के और कोई नहीं जो उनकी शर्मिंदगी का गवाह बने। नेपाल बाबू घात लगाकर बैठे थे और बाघ को भूलकर जुल्फिया के बारे में सोचने लगे थे। कल रात का दृश्य हवा में धूप की चमकीली पन्नियों की तरह उड़ रहा था। जुल्फिया की देह धीरे-धीरे खुल रही थी और नेपाल बाबू की आँखें जैसे बुखार में तपती हों।

सबकुछ अनजाने में यकायक हो गया था – ऐसा नहीं था। नेपाल बाबू जानते थे कि वे क्या कर रहे हैं। जुल्फिया भी जानती थी। दोनों की अभिज्ञता ने विस्मय और विलाप के लिए कोई जगह नहीं छोड़ी थी। अब जो नेपाल बाबू को कल रात के कृत्य के लिए शर्मिंदगी हो रही थी, वह दरअसल तत्काल (जब वे मुरशेद के साथ जंगल में घात लगाए बैठे हैं) की मंथरता के बरक्स एक मूढ़ प्रतिक्रिया है। एक तरह की तुच्छता। जो बीत चुका है, लौट नहीं सकता। नेपाल बाबू के होंठों पर मुस्कराहट रेंग गई। बीते हुए समय के समुद्र से बजबजाए फेन की तरह अस्फुट और मरियल मुस्कराहट। कल रात जो इतनी शिद्दत के साथ बिल्कुल अंतिम सत्य की तरह घटित हुआ था, वह जंगल के चुपचाप में इतना थोथा और हास्यास्पद जान पड़ा कि नेपाल बाबू खुद को जोकर महसूस करने लगे। निश्चय ही इस खेल में जीत जुल्फिया की हुई है। उसने नेपाल बाबू का शिकार किया है। तिस पर भी वह इतनी क्षम्य है कि सिवाय बीते हुए के तमाम मसखरे पहलुओं को याद करने और एक हारी हुई हँसी हँसने के, नेपाल बाबू के हिस्से कुछ नहीं आता।

नेपाल बाबू का जी उखड़ गया। मुरशेद को झकझोरा। चलो उठो, लौटना है। मुरशेद हड़बड़ाकर उठा। कितने बजे हैं मालिक? नेपाल बाबू ने बंदूक कंधे से टाँग ली। अभी इसी वक्त चलो। लौटना है।

नेपाल बाबू लौट रहे हैं। हफ्ता भर भी नहीं हुआ। सामान बँध चुके हैं। मुरशेद चुप है। जुल्फिया हैरान। पूछ रही है – बाबू, हमसे कोई गलती हुई क्या? नेपाल बाबू ने उसे सौ का एक नोट दिया – ”तुमने मेरी सेवा-टहल की, इसलिए यह।” जुल्फिया ने नोट अपने ब्लाउज में रख लिया। जलाल रिक्शा लेकर आ चुका है। दो बजे की बस पकड़नी है। मुरशेद बस अड्डे तक साथ जाएगा। उसे अब तक समझ में नहीं आ रहा – क्या करे, क्या कहे! नेपाल बाबू ने उसकी फीस चुका दी है। बख्शीश भी मिल चुकी। जितने की उम्मीद थी, उससे कहीं अधिक। पैसे लेते हुए मुरशेद को जाने क्यों शर्मिंदगी महसूस हो रही है।

बस की डिक्की में सामान रखकर मुरशेद नेपाल बाबू के पास चला आया। नेपाल बाबू खिड़की के पास बैठे थे। उन्होंने सिर निकालकर मुरशेद को धन्यवाद कहना चाहा, पर अंत समय में चुप हो गए। मुरशेद ने ही चुप्पी तोड़ी। बोला, ”मालिक, न हो तो बख्शीश के पैसे वापस ले लीजिए।”

नेपाल बाबू को अचानक कुछ समझ में नहीं आया। बोले, ”बात क्या है मुरशेद?” वे पूछ नहीं रहे थे, जैसे दुलार रहे थे। मुरशेद हुलस गया। झिझकते हुए बोला, ”वो उस दिन गाँव में बाघ दिखने वाली बात मैंने झूठ कही थी।”

नेपाल बाबू चुप रहे। मुरशेद कहता रहा, ”बहुत छोटा था, सात-आठ साल का। अंतिम बार तभी देखा था बाघ। मुझे नहीं मालूम कि जंगल में कोई बाघ-वाघ है भी कि नहीं।”

मुरशेद दबा जा रहा था। सिरे नीचे किए खड़ा रहा। नेपाल बाबू को हँसी आ गई। उन्होंने मजाक के लहजे में कहा, ”और तुम जानते हो, इधर मुझे भी नहीं मालूम कि मेरी बंदूक चलती है भी कि नहीं।”

सुनकर मुरशेद हँसने से न रह सका। फिर एकाएक दोनों चुप हो गए, मानो दोनों की हँसी की उम्र इतनी जरा सी थी। नेपाल बाबू को लगा कि वे दोनों ही किसी अदृश्य इशारे से अचानक जुल्फिया के बारे में सोचने लगे हैं। थोड़ी देर बाद मुरशेद ‘एक मिन्ट में आया’ कहकर जलाल के पास गया और रिक्शे की सीट के नीचे से एक झोला निकालकर ले आया। नेपाल बाबू को देने लगा तो उन्होंने पूछा कि इसमें क्या है! उसने याद दिलाया, ”जिस दिन आपकी दवाई लाने कस्बे तक गया था, उसी दिन बाजार से बाघ की एक खाल खरीदकर लेता आया आपके लिए। वहाँ शहर में लोग पूछेंगे तो यह काम आएगा। …एकदम असली लगता है न!”

नेपाल बाबू, ”लेकिन मैं इसका…?”

”रख लीजिए न मालिक। वहाँ यह न कहिएगा कि यहाँ के जंगलों में अब बाघ नहीं बचे। (हँसते हुए) वर्ना तो हम लोगों का कारोबार ही…”

बस ने खुलने का संकेत दे दिया। थोड़ी ही देर में बस पूरी रफ्तार से भागने लगी। खिड़की से जो दिख रहा है, वह प्रदेश बंगाल का ही तो है! नेपाल बाबू को लगता है, यह कोई दूसरी दुनिया है। एक अजीब बात यह है कि खिड़की से जो दिख रहा था, उसमें लोग बहुत कम दिख रहे थे। औरतें तो बिल्कुल ही नहीं।

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आखेटक – Aakhetak

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