सुनते हैं
अपने ही हैं –
जल, जंगल और जमीन।
आते रहे
रहे जाते दिन
हम कौड़ी के तीन।
वे थे, ये हैं
फर्क कहाँ कुछ
अब भी वही नकेल
शकुनी के
हाथों में पाँसा
सब चौरस का खेल,
पानी में रहकर भी,
साधो, पड़ी पियासी मीन।
पर्वत पिता
नदी है माता
जंगल ही घर-बार
सुख-दुख के
संगी-साथी
ये पेड़, झाड़-झँखाड़
गुजर-बसर ऐसे ही
करते आए, करो यकीन।
भद्रजनों के
भ्रदलोक में
हम जंगल की चीख
दया-भाव से
दे देते कुछ
जैसे देवें भीख
हम जस के तस, वे
अपनी सुख-सुविधा में तल्लीन।