आधुनिक किस्म की हिंसाएँ | प्रदीप जिलवाने
आधुनिक किस्म की हिंसाएँ | प्रदीप जिलवाने
दर्पण में खुद को अजनबीयत से घूरना
बाजार में खाली जेब चले आना
पत्नी से फिर प्रेमिका होने की उम्मीद करना
हिंसा है
किसी सड़कछाप लुक्खे को गाँधी करार देना
जहाँ जगह न हो वहाँ हँस देना
अकारण अपने पड़ोसी को पहचान लेना
हिंसा है
किसी शब्द से उसका मौलिक अर्थ छिपाना
किसी पेड़ से पूछना उसकी शेष उम्र
किसी स्त्री से उसके कौमार्य बाबद जानना
हिंसा है
मामूली से मामूली इच्छा का त्याग हिंसा है
अपने समय के पीछे चलना हिंसा है
यहाँ तक कि तटस्थता भी हिंसा है