किसी साहित्यिक कृति पर फिल्म बनाना एक बहुत बड़ा जोखिम है। किसी विश्वप्रसिद्ध साहित्यिक कृति पर फिल्म बनाना और बड़ा जोखिम है। कोलंबियन नोबेल पुरस्कृत लेखक गैब्रियल गार्सिया मार्केस इस बात से परिचित थे कि अक्सर फिल्म बनते ही साहित्यिक कृति का सत्यानाश हो जाता है। इसी कारण उन्होंने काफी समय तक निश्चय किया हुआ था कि वे अपनी कृतियों पर फिल्म बनाने का अधिकार भूल कर भी किसी को नहीं देंगे। उनके प्रसिद्ध उपन्यास ‘वन हंड्रेड इयर्स ऑफ सोलिट्यूड’ पर फिल्म बनाने के लिए उन्हें एक बहुत बड़ी रकम की पेशकश की गई। काफी समय तक वे टस-से-मस नहीं हुए, अपनी जिद पर अड़े रहे। उनका एक और प्रसिद्ध उपन्यास है ‘लव इन द टाइम ऑफ कॉलरा’। इसके फिल्मीकरण के लिए निर्देशक उनके चक्कर लगा रहे थे। वे इसके लिए भी सहमत न थे। इस विश्व प्रसिद्ध उपन्यास में फरमीना डाज़ा और फ़्लोरेंटीनो अरीज़ा का प्रेम तब प्रारंभ हुआ था जब वह 13 साल की और वह 18 साल का था। मगर जैसा कि अक्सर होता है लड़की के नवधनाढ्य पिता को लड़के का स्टेट्स अपने बराबर का नहीं लगा। उसने अपनी बेटी को काफी समय के लिए दूर अपने कस्बे में भेज दिया। लड़की लौटती है और अपने पिता की मर्जी के डॉ. जुवेनल उर्बीनो से शादी करती है। दोनों का दांपत्य ऊपर से देखने पर बड़ा सुखी नजर आता है। अंदर उसमें तमाम विसंगतियाँ है। यह एक अनोखे प्रेम की अनोखी कहानी है जिसे मार्केस ने अपने माता-पिता के जीवन के आधार पर रचा है। (विस्तार के लिए विजय शर्मा का कथाक्रम प्रेम विशेषांक में प्रकाशित लेख देखा जा सकता है)

फ़्लोरेंटीनो अरीज़ा फरमीना डाज़ा को भूला नहीं है। हाँ, इस गम को भुलाने के लिए वह कई लड़कियों, स्त्रियों से शारीरिक संबंध बनाता है। वह इन संबंधों का रिकॉर्ड भी रखता है जिसकी संख्या 622 तक पहुँचती है। आधी सदी बीत चुकी है जब डॉ. उर्बीनो की एक दुर्घटना में मृत्यु हो जाती है। यह फरमीना डाज़ा के वैधव्य की प्रथम रात्रि है जब फ़्लोरेंटीनो अरीज़ा अपने प्रेम का पुनः इजहार करने पहुँचता है। वह वियोग के एक-एक दिन का हिसाब रखे हुए है और बताता है कि 51 साल नौ महीने और चार दिन के बाद उसे यह अवसर मिला है। उपन्यास बताता है कि अब तक फ़्लोरेंटीनो अरीज़ा रिवर बोट कंपनी का मालिक बन चुका था और वह अपनी प्रेमिका को लेकर जलयात्रा पर निकलता है।

प्रोड्यूसर स्कॉट स्टेनडोर्फ ने तय किया कि वे मार्केस के उपन्यास ‘लव इन द टाइम ऑफ कॉलरा’ पर फिल्म बनाएँगे। इसके लिए उन्होंने मार्केस को घेरना शुरू किया। मार्केस राजी न हों। तीन साल तक मार्केस से अनुनय-विनय करते रहने के बाद अंत में स्कॉट स्टेनडोर्फ ने साफ-साफ कह दिया कि जैसे फ़्लोरेंटीनो अरीज़ा ने फरमीना डाज़ा का पीछा नहीं छोड़ा था वैसे ही वे भी मार्केस का पीछा नहीं छोड़ने वाले हैं। हार कर मार्केस ने अपने उपन्यास पर फिल्म बनाने की अनुमति स्कॉट स्टेनडोर्फ को दे दी। निर्देशन का काम किया एक जाने-माने फिल्म निर्देशक माइक नेवेल ने। और इस तरह 1988 में लिखे गए उपन्यास पर 2007 में फिल्म रिलीज हुई। फिल्म पूर्व प्रदर्शन के समय मार्केस उपस्थित थे। फिल्म की समाप्ति पर उन्होंने चेहरे पर मुस्कान लिए हुए केवल एक शब्द कहा “Bravo!”

उपन्यासकार ने फिल्म देख कर ‘ब्रावो!’ कहा, लेकिन फिल्म देख कर दर्शकों पर क्या प्रभाव पड़ता है? यदि आपने पुस्तक पढ़ी है तो पहली बार में फिल्म जीवंत और तेज गति से चलती हुई लगती है। अगर पुस्तक नहीं पढ़ी है तो बहुत सारी बातें बेसिर-पैर की लगती हैं। दर्शक उपन्यास की गूढ़ बातों से वंचित रहता है। नायिका की मुस्कान उसका लावण्य दर्शकों को लुभाता है। उसकी डिग्निटी देख कर उसके प्रति मन में आदर का भाव उत्पन्न होता है। प्राकृतिक दृश्य बहुत कम हैं मगर सुंदर हैं, आकर्षित करते हैं। फिल्म का रंग संयोजन मनभावन है। फिल्म देखने में आनंद आता है। कारण फिल्म की गति और उसकी जीवंतता है। पर जब दूसरी बार आप समीक्षक की दृष्टि से इसे देखते हैं तो यह आपको उतनी प्रभावित नहीं करती है।

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यह सही है कि साहित्य और फिल्म दो भिन्न विधाएँ हैं और उनके मानदंड भी भिन्न है। चलिए इस वजह से ‘लव इन द टाइम ऑफ कॉलरा’ उपन्यास और ‘लव इन द टाइम ऑफ कॉलरा’ फिल्म की तुलना नहीं करते हैं। जब सिर्फ फिल्म को लें तो पाते हैं कि जिस दर्शक ने पुस्तक नहीं पढ़ी है उसके पल्ले क्या पड़ेगा? उसके पल्ले पड़ेगा एक ऐसा हीरो जो कहीं से कन्विंसिंग नहीं लगता है। उसका हेयर स्टाइल, उसका झुका हुआ बॉडी पोस्चर, उसकी मुस्कान एक कॉमिक इफेक्ट पैदा करती है। वैसे यह कोई नया एक्टर नहीं है। जेवियर बारडेम को इसके पहले ‘नो कंट्री फॉर ओल्डमैन’ के लिए बेस्ट सपोर्टिंग एक्टर का ऑस्कर पुरस्कार मिल चुका है मगर यहाँ कुछ तो गड़बड़ हो गई है। दोष किसे दिया जाए उनके मेकअप मैन को या जिसने उनकी विग डिजाइन की या उसको जिसने उनकी मूँछें और ड्रेस बनाई, या फिर निर्देशक को जिसने उनकी ऐसी कल्पना की, आखिर फिल्म तो उसी की आँख से बनती है। ठीकरा किसी के सिर फोड़ा जा सकता है लेकिन बारडेम की एक्टिंग और मुस्कान फ़्लोरेंटीनो अरीज़ा के रूप में प्रभावित नहीं करती हैं। ठीक है वह एक निम्न आर्थिक स्तर, क्लर्क ग्रेड के लड़के के रूप में जीवन प्रारंभ करता है। बाद में जब वह रिवर बोट कंपनी का मालिक बन जाता है तब भी उसकी चाल-ढाल में कोई परिवर्तन नहीं आता है, वह वैसे ही झुक कर रहता है। सबसे खराब प्रभाव डालती है उसके चेहरे पर चिपकी उसकी मुस्कान। इस मुस्कान के चलते वह एक क्लाउन नजर आता है, डाई हार्ट प्रेमी नहीं, जैसा कि मार्केस ने उसे दिखाने का प्रयास किया है। वैसे उपन्यास में वह ठीक इसी रूप में चित्रित है। (फ़्लोरेंटीनो अरीज़ा का रूप-रंग-बाना देखने योग्य है, मौसम कोई हो मगर उसकी पोषाक तय है। एक उपयोगी और गंभीर बूढ़ा, उसका शरीर हड़ीला और सीधा-सतर, त्वचा गहरी और क्लीन शेव, रुपहले गोल फ्रेम के चश्मे के पीछे उसकी लोलुप आँखें, रोमांटिक, पुराने फैशन की मूँछें जिनकी नोंक मोम से सजी हुई। गंजी, चिकनी, चमकती खोपड़ी पर बचे-खुचे बाल बिलक्रीम की सहायता से सजाए हुए। उसकी मोहक और शिथिल अदा तत्काल लुभाती, खासकार स्त्रियों को। अपनी छिहत्तर साल की उम्र को छिपाने के लिए उसने खूब सारा पैसा, वाक-विदग्धता और इच्छाशक्ति लगाई थी और एकांत में वह विश्वास करता कि उसने किसी भी अन्य व्यक्ति से ज्यादा लंबे समय तक चुपचाप प्रेम किया है। उसका पहनावा भी उसकी तरह विचित्र है। वेस्ट के साथ एक गहरे रंग का सूट, सिल्क की एक बो-टाई, एक सेल्यूलाइड कॉलर, फेल्ट हैट, चमकता हुआ एक काला छाता जिसे वह छड़ी के रूप में भी प्रयोग करता। – पुस्तक के अनुसार) लेकिन लिखित शब्दों में पढ़ें वर्णन के साथ आपकी, पाठक की कल्पना जुड़ी होती है, वहाँ उसका यह रूप फबता है। वही रूप-रंग जब परदे पर रूढ़ हो जाता है तो खटकता है। यही अंतर है साहित्य और सिनेमा का। सिनेमा चाक्षुस है अतः अधिक सावधानी की आवश्यकता है। यहीं निर्देशक चूक गया है।

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पूरी फिल्म में एक बात बड़ी शिद्दत से नजर आती है और दर्शकों पर उतना अच्छा प्रभाव नहीं डालती है वह है हर स्त्री – चाहे वह किशोरी अमेरिका हो या फिर बूढ़ी फरमीना डाज़ा – का अपना वक्ष दिखाने को तत्पर रहना। हाँ, शुरू से अंत तक फरमीना डाज़ा के रूप में जिवोना मेजोगिओर्नो अपनी सुंदरता से, अपने अभिनय से लुभाती है। उसकी स्मित मन में गहरे उतर जाती है। उसके बैठने, चलने और खड़े रहने का अंदाज उसकी उच्च स्थिति और उसके आंतरिक गर्व को प्रदर्शित करता है। फ़्लोरेंटीनो अरीज़ा की माँ ट्रांसिटो अरीज़ा के रूप में ब्राजील की अभिनेत्री फर्नांडा मोंटेनेग्रो का अभिनय प्रभावित करता है। फरमीना डाज़ा की कजिन हिल्डेब्रांडा सेंचेज के रूप में सुंदरी काटालीना सैडीनो को देखना अपने आप में एक भिन्न अनुभव है। यह किशोरी एक शादीशुदा व्यक्ति के प्रेम में है। उसकी मासूमियत पर फिदा होने का मन करता है। डॉ. जुवेनल उर्बीनो के रूप में बेंजामिन ब्राट के लिए कुछ खास करने को न था। द विडो नजरेथ के रूप में एंजी सेपेडा जरूर परदे (स्क्रीन) को हिलाती है।

सिनेमेटोग्राफी अवश्य प्रभावित करती है। घर, बोट की आंतरिक साज-सज्जा और बाह्य प्राकृतिक सौंदर्य को कैमरे की आँख से इतनी खूबसूरती से पकड़ने के लिए सिनेमेटोग्राफर एफ़ोंसो बीटो बधाई के पात्र हैं। मेग्डालेना नदी और सियेरा नेवादा डे सांता मार्टा की पर्वत शृंखला बहुत कम समय के लिए दीखती है पर अत्यंत सुंदर है। फिल्म की शूटिंग के लिए कोलंबिया के ऐतिहासिक पुराने शहर कार्टाजेना के लोकेशन का प्रयोग हुआ है। घर और बोट की साज-सज्जा पात्रों की आर्थिक और सामाजिक स्थिति के अनुरूप है।

फिल्म की शुरुआत में जब क्रेडिट चल रहे होते हैं बहुत खूबसूरत ऐनीमेशन है। चटख रंगों में फूलों का खिलना उनके प्ररोहों (टेंड्रिल्स) का सरसराते हुए आगे बढ़ना, विकसित होना और साथ में चलता संगीत। इसी तरह फिल्म की समाप्ति का ऐनीमेशन। दक्षिण अमेरिका के पर्यावरण और रंगों का विशेष रूप से ध्यान रखते हुए, उनसे प्रेरित होकर इसे लंदन के एक ऐनीमेशन स्टूडियो वूडूडॉग’ ने तैयार किया है। संगीत इस फिल्म की जान है। क्यों न हों। संगीत लैटिन अमेरिका की प्रसिद्ध गायिका शकीरा ने दिया है। वे गैब्रियल गार्सिया मार्केस की बहुत अच्छी दोस्त है। उन्होंने एक गाना लिखा भी है और गाया भी है। फिल्म को संगीत देने में शकीरा के साथ हैं अंटोनिओ पिंटो। क्रेडिट का ऐनीमेशन फिल्म के मूड को सेट कर देता है। दर्शक तभी जान जाता है कि वह एक रोमांटिक फिल्म देखने जा रहा है। फिल्म लैटिन अमेरिकन खास कर कोलंबियन जीवन को बड़े मनोरंजक तरीके से प्रस्तुत करती है। स्पैनिश लोग हॉट ब्लडेड होते हैं। लड़ने, मरने-मारने को जितने उतारू उतना ही प्रेम करने को उद्धत। भारत के पंजाब प्रांत के लोगों की तरह वे जो भी करते हैं खूब शान-बान और आन से करते हैं।

‘लव इन द टाइम ऑफ कॉलरा’ फिल्म का स्क्रीनप्ले रोनांड हार्वुड ने तैयार किया है। स्क्रीनप्ले ठीक ठाक है। साढ़े तीन सौ पन्नों के उपन्यास में पात्रों का जो मनोवैज्ञानिक चित्रण और विकास है उसे 139 मिनट की फिल्म में समेटना संभव नहीं है। उपन्यास के कई महत्वपूर्ण अंशों को बिल्कुल छोड़ दिया गया है, जैसे लियोना कैसीयानी का प्रसंग, जैसे फरमीना डाज़ा का अपने पति की कब्र पर जाकर उसे एक-एक बात बताना, जैसे डॉ. जुवेनल उर्बीनो और फरमीना डाज़ा का गैस बैलून में पत्र लेकर उड़ना, बुढ़ापे में फरमीना डाज़ा का पति की सेवा करना, प्रकृति का मनुष्य द्वारा दोहन, प्रकृति का उजाड़ होते जाने, पर्यावरण प्रदूषण आदि, आदि। माइक औड्स्ले की एडीटिंग अच्छी है। फिल्म में एक बात और खटकती है वह है इसके पात्रों द्वारा बोली गई भाषा। फिल्म इंग्लिश भाषा में बनी है। यह फिल्म स्पैनिश भाषा में नहीं बनी है, इंग्लिश में डबिंग नहीं हुई है। फिर पात्र स्पैनिश लहजे (एक्सेंट) में इंग्लिश क्यों बोलते हैं? अगर फिल्म स्पैनिश भाषा में होती तो क्या पात्र किसी खास लहजे में बोलते या सहज-स्वाभिक स्पैनिश भाषा का प्रयोग करते?

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1880 से 1930 तक की अवधि को समेटे हुई ‘लव इन द टाइम ऑफ कॉलरा’ फिल्म के विषय में मेरे मित्र कथाकार सूरज प्रकाश का कहना है कि यह उनकी पसंदीदा फिल्मों में से एक है। मेरा भी यही कहना है कि मुझे यह फिल्म बहुत अच्छी लगी। अगर ऊपर गिनाई गई कमजोरियाँ इसमें न होती तो यह अवश्य मेरी पसंदीदा फिल्मों की सूची में काफी ऊपर स्थान पर होती जैसे कि मार्केस मेरे पसंदीदा लेखकों की सूची में पहले नंबर पर आते हैं। यह मार्केस के उपन्यास पर हॉलीवुड स्टूडियो में बनी पहली फिल्म है जिसे लैटिन अमेरिकन या इटैलियन निर्देशकों ने नहीं बनाया है।

हॉलीवुड के निर्देशक बहुत कुशल होते हैं। इसके साथ ही उनकी एक सीमा है। एक खास तरह की सभ्यता-संस्कृति से ये निर्देशक बखूबी परिचित हैं। मगर इस खास दायरे के बाहर की सभ्यता-संस्कृति की या तो उन्हें पूरी जानकारी नहीं है या फिर वे उसे महत्व नहीं देना चाहते हैं। लैटिन अमेरिकी सभ्यता-संस्कृति अमेरिकी सभ्यता-संस्कृति से बहुत भिन्न है। यह बहुत समृद्ध है, इसकी बहुत सारी विशेषताएँ हैं। मार्केस का साहित्य इसकी बहुत ऑथेंटिक झलक देता है। ‘लव इन द टाइम ऑफ कॉलरा’ फिल्म इस सभ्यता-संस्कृति की खुशबू को समेटने में समर्थ नहीं हो सकी है। हॉलीवुड के श्वेत निर्देशक अपने ही देश की अश्वेत सभ्यता-संस्कृति को पकड़ने में कई बार चूक जाते हैं। स्टीफन स्पीलबर्ग जिन्होंने बहुत उत्कृष्ट फिल्में बनाई हैं लेकिन जब वे एफ्रो-अमेरिकन साहित्य से लेकर ‘द कलर पर्पल’ पर फिल्म बनाते हैं तो उसके साथ न्याय नहीं कर पाते हैं। एलिस वॉकर का यह उपन्यास जिस संवेदनशीलता से रचा गया है स्टीफन स्पीलबर्ग ने यह फिल्म उतनी ही असंवेदनशीलता से बनाई है।

क्यों करते हैं हॉलीवुड के माइक नेवेल या स्टीफन स्पीलबर्ग ऐसा खिलवाड़? क्यों दूसरों को कमतर दिखाते हैं? क्या यह हॉलीवुड श्वेत निर्देशकों का अहंकार है अथवा उनकी समझ की कमी? क्या यह उनकी अज्ञानता है या फिर उनका दंभ? यह शोध का विषय हो सकता है। अगर यह नासमझी है तो आज के जागरूक और वैश्विक युग में इस तरह की नासमझियाँ स्वीकार नहीं की जानी चाहिए। अगर यह झूठा दंभ है तब तो इसे कतई स्वीकार नहीं किया जाना चाहिए।

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