मेरे मन का शतरंज
मेरे मन का शतरंज

मेरे मन का शतरंज
चौसठ खानों के बीच
उलझा हुआ
हाँ और ना में
कभी अमावस्या में
पूर्णिमा का अहसास

तो कभी पूर्णिमा में
अमावस्या का अहसास।
तरंगों के प्यादे आगे बढ़ाने में
कभी समान तरंगों के प्यादे से
अहं के ऊँट को निगलते हुए
हाथी की चाल से मात देते हुए
मन के घोड़े को दौड़ाती चली गई

See also  तुम वहाँ भी होगी | चंद्रकांत देवताले

कि अपने प्रेम के वजीर से जीत ही
लूँगी शह और मात का खेल।

Leave a comment

Leave a Reply