जीवन
जीवन

? ?जीवन का सार  ??
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? एक नदी में हाथी की लाश बही जा रही थी । एक कौए ने लाश देखी तो प्रसन्न हो उठा । तुरन्त उस पर आ बैठा । पेट भरकर मांस खाया । नदी का जल पीया । उस लाश पर इधर-उधर फुदकते हुए कौए ने परम तृप्ति की डकार ली ।
वह सोचने लगा – “आह ! यह तो अत्यन्त सुन्दर यान है । यहाँ भोजन और जल की भी कमी नहीं है । फिर इसे छोड़कर अन्यत्र क्यों भटकता फिरुं ?”
कौआ नदी के साथ बहने वाली उस लाश के ऊपर कईं दिनों तक रमता रहा । भूख लगने पर वह लाश को नोचकर खा लेता, प्यास लगने पर नदी का पानी पी लेता । अगाध जलराशि, उसका तेज प्रवाह, किनारे पर दूर-दूर तक फैले प्रकृति के मनोहारी दृश्य, इन्हें देख-देखकर वह विभोर होता रहा ।
आख़िरकार नदी एक दिन महासागर में जा मिली । वह मुदित थी कि उसे अपना गंतव्य प्राप्त हुआ । सागर से मिलना ही उसका चरम लक्ष्य था । किन्तु उस दिन लक्ष्यहीन कौए की तो बड़ी दुर्गति हो गई । चार दिन की मौज-मस्ती ने उसे ऐसी जगह ला पटका था, जहाँ उसके लिए न भोजन था, न पेयजल और न ही कोई आश्रय । सब ओर सीमाहीन अनन्त खारी जल-राशि तरंगायित हो रही थी ।
कौआ थका-हारा और भूखा-प्यासा कुछ दिन तक तो चारों दिशाओं में पंख फटकारता रहा, अपनी छिछली और टेढ़ी-मेढ़ी उड़ानों से झूठा रौब फैलाता रहा । किन्तु महासागर का ओर-छोर उसे कहीं नजर नहीं आया । आखिरकार थक हारकर, दु:ख से कातर होकर वह सागर की उन्हीं गगनचुम्बी लहरों में गिर गया । एक विशाल मगरमच्छ उसे निगल गया ।
शारीरिक सुख में लिप्त मनुष्यों की गति भी उसी कौए की तरह ही होती है, जो आहार और आश्रय को ही परम गति मानते हैं और अन्त में अनन्त संसार रुपी सागर में समा जाते हैं ।
जीत किसके लिए ? हार किसके लिए ?
ज़िन्दगी भर ये तकरार किसके लिए ?
जो भी आया है, वो जायेगा एक दिन . .
फिर इतना अहंकार किसके लिए ?
सिमरन करले तू ऐ बन्दे,
साँसें अभी भी काफी हैं !
किए जो तुमने गुनाह हैं सारे . .
इस दर पर उनकी माफी है ।।               जय श्री राधे राधे

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